इंसानियत के नाम पर सियासत, अवैध घुसपैठियों की पैरवी कर रहे हैं राष्ट्रविरोधी ताकतें

क्या राष्ट्र की संप्रभुता की कीमत पर मानवता का ढोंग करना सही है, या यह भारत के खिलाफ एक साज़िश है?

The Narrative World    23-Oct-2025
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भारत आज जिस समस्या से जूझ रहा है, वह सिर्फ सीमा पार घुसपैठ की नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, जनसांख्यिक असंतुलन और राजनीतिक स्वार्थ से जुड़ी बड़ी चुनौती है। देश की खुली सीमाएं, बांग्लादेश और म्यांमार जैसे देशों के साथ भूगोलिक जटिलता, और वोट बैंक की राजनीति ने अवैध घुसपैठ को एक खतरनाक सामाजिक और सुरक्षा संकट बना दिया है।
 
भारत की 15,000 किलोमीटर से अधिक लंबी सीमाएं कई हिस्सों में नदी, जंगल और बस्तियों से होकर गुजरती हैं। इस कारण अवैध प्रवासियों के लिए प्रवेश आसान हो जाता है। बांग्लादेश से आने वाले लाखों घुसपैठिए कई राज्यों की जनसंख्या संरचना को प्रभावित कर चुके हैं। असम, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और मेघालय में जनसंख्या संतुलन तेजी से बदल रहा है। यह बदलाव सिर्फ आंकड़ों का खेल नहीं बल्कि स्थानीय संस्कृति, भाषा और पहचान के अस्तित्व से जुड़ा मुद्दा है।
 
ये अवैध घुसपैठिए नकली दस्तावेजों के सहारे नागरिक बन जाते हैं। आधार, राशन कार्ड, वोटर आईडी तक बनवा लेते हैं और सरकारी योजनाओं का लाभ उठाते हैं। नतीजतन असली नागरिकों के अधिकारों और संसाधनों पर सीधा असर पड़ता है। गरीब नागरिक रोजगार और राशन के लिए संघर्ष करते हैं जबकि घुसपैठिए राजनीति के सहारे वैधता पाने में जुटे रहते हैं।
 
सबसे बड़ा अपराध उन राजनीतिक दलों का है जो इन अवैध घुसपैठियों को “वोट बैंक” में बदल देते हैं। नागरिकता कानून और एनआरसी जैसे कदमों का विरोध इन्हीं ताकतों ने इसलिए किया क्योंकि उन्हें डर था कि अवैध मतदाता उजागर हो जाएंगे। “No Human is Illegal” जैसे नारे लगाने वाले कलाकार और तथाकथित बुद्धिजीवी भी इसी नैरेटिव को हवा देते हैं।
 
 
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ये लोग भावनात्मक भाषा में मानवता की बात करते हैं, लेकिन यह नहीं बताते कि हर देश की सीमाएं और कानून उसकी संप्रभुता की रक्षा करते हैं। अगर हर व्यक्ति को किसी भी देश में रहने का अधिकार मिल जाए तो नागरिकता और कानून का अर्थ ही खत्म हो जाएगा। ऐसे नारे असल में उन ताकतों को मजबूती देते हैं जो भारत की सामाजिक संरचना को अस्थिर करना चाहते हैं।
 
असम और बंगाल जैसे राज्यों में घुसपैठ से स्थानीय भाषाएं और संस्कृतियां खतरे में हैं। असम आंदोलन और 2012 के कोकराझार हिंसक झगड़े इस असंतुलन के सीधे परिणाम थे। त्रिपुरा में जनजाति समाज आज अल्पसंख्यक हो चुका है क्योंकि दशकों से अवैध प्रवासी वहां बसते रहे। इस बदलाव ने पहचान और अस्तित्व की लड़ाई को जन्म दिया।
 
अवैध प्रवासी न केवल जनसंख्या बढ़ाते हैं, बल्कि सीमित संसाधनों पर भी बोझ डालते हैं। वे सस्ते मजदूर बनकर स्थानीय कामगारों की रोजी छीनते हैं। कई आतंकी और अपराधी नेटवर्क इन्हीं रास्तों का उपयोग कर देश में घुसते हैं। सीमा सुरक्षा बल और खुफिया एजेंसियां लगातार ऐसे मामलों का खुलासा कर रही हैं। 
भारत को अब भावनाओं से नहीं, हकीकत से नीति बनानी होगी। देश की सीमाओं की निगरानी के लिए अत्याधुनिक तकनीक, ड्रोन और जैविक पहचान प्रणाली जरूरी है। जो लोग लंबे समय से भारत में हैं, उन्हें कानूनी पहचान देने या देश छोड़ने का स्पष्ट ढांचा तय होना चाहिए। लेकिन जो नए और अवैध हैं, उनके खिलाफ तुरंत कार्रवाई जरूरी है।
 
भारत में “No Human is Illegal” जैसा नारा सिर्फ भ्रामक है। यह उन लोगों के लिए ढाल बन गया है जो देश की सुरक्षा और जनसंख्या संतुलन से खिलवाड़ करना चाहते हैं। भारत को मानवता की रक्षा करनी है, पर अपनी सीमाओं और संप्रभुता की कीमत पर नहीं। राष्ट्रहित सर्वोपरि है, और जो इस सिद्धांत को नहीं समझते, वे न मानवता के सच्चे पक्षधर हैं, न भारत के।
 
लेख
शोमेन चंद्र