सरेंडर रणनीति : बस्तर के जंगलों में माओवाद की बदलती चाल

बस्तर के जंगलों में बंदूकें झुक गई हैं, लेकिन विचार अब भी खड़ा है। आत्मसमर्पण की इन तस्वीरों के पीछे एक नई रणनीति जन्म ले रही है, जहां माओवादी अब संविधान की भाषा में संघर्ष करने की तैयारी कर रहे हैं। क्या यह शांति का आरंभ है या एक और वैचारिक जंग की भूमिका?

The Narrative World    24-Oct-2025   
Total Views |

Representative Image
बस्तर का घना जंगल
, जहां पेड़ों की जड़ों में मिट्टी से ज्यादा कहानियां दबी हैं। यही वह धरती है जहां दशकों तक बंदूक की नली से संवाद हुआ, और जहां हर सन्नाटा किसी अनकही दास्तान की तरह गूंजता रहा।


इसी बीच हाल ही में बीजापुर के भीतर बसे भैरमगढ़ ब्लॉक में, इंद्रावती नदी के किनारे, एक सुबह जब जंगल की हवा कुछ अलग लग रही थी, तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि यह दिन इतिहास में दर्ज हो जाएगा।


उस दिन नदी पार कर एक लम्बी कतार आगे बढ़ रही थी। पुरुष, महिलाएं, कुछ बूढ़े चेहरे और कुछ युवा जो अब भी अपनी आँखों में भय और उम्मीद दोनों लिए थे।


इन सबके हाथों में कुछ के पास हथियार थे, जंग खाए हुए, थके हुए और कुछ के हाथ खाली थे, लेकिन मन में एक इच्छा थी कि अब शायद वो सामान्य जीवन जी पाएंगे।


Representative Image

यही वो पल था जब मीडिया के कैमरों नेमुख्यधारा में लौटते माओवादीकी तस्वीरें खींचीं, और अखबारों ने लिखा किमाओवाद के अंत का आरंभ हो गया है लेकिन क्या यह सचमुच अंत था?


“सरकार ने उसी दिन घोषणा की कि “अबूझमाड़ और उत्तर बस्तर अब नक्सल-मुक्त हैं।” और यह घोषणा केवल एक प्रशासनिक बयान नहीं थी, बल्कि दशकों की जंग, सैकड़ों जानों और हजारों कहानियों का एक निष्कर्ष थी। फिर भी, इस निष्कर्ष के भीतर एक नया आरंभ छिपा था, एक ऐसी शुरुआत जो शायद और भी गहरी थी।”


दरअसल, यह घोषणा दो बड़ी घटनाओं के बाद आई। माओवादी संगठन के पोलित ब्यूरो सदस्य सोनू उर्फ मल्लोजुला वेणुगोपाल राव उर्फ भूपति ने गढ़चिरौली में हथियार डाल दिए। इसके दो ही दिन बाद, माओवादी सेंट्रल कमेटी का सदस्य सतीश उर्फ रूपेश ने भी आत्मसमर्पण किया।


इन दो घटनाओं के बीच मात्र 48 घंटे का अंतर था, लेकिन इन 48 घंटों में 250 से अधिक माओवादी भी आत्मसमर्पण की राह पर चल पड़े। पहली नज़र में यह सब एक विजय की तरह दिखा। लेकिन फिर रूपेश ने एक वाक्य कहा कि "हम आत्मसमर्पण नहीं कर रहे हैं, हम केवल हथियार छोड़ रहे हैं।"


Representative Image

इस एक वाक्य ने शासन-प्रशासन के मध्य चिंता की एक नई लकीर खींच दी। क्योंकि यह वही रूपेश था, जिसने तीन दशकों से अधिक समय तक दंडकारण्य में माओवादी रणनीति की रीढ़ संभाली थी।


वही व्यक्ति जो दंडकारण्य में संगठन के भीतर वैचारिक दिशा तय कर रहा था। और जब वही व्यक्ति आत्मसमर्पण के समयसंघर्ष जारी रहेगाकहे, तो इसका मतलब महज़ शब्दों का खेल नहीं होता।


सरेंडर रणनीतिकी परतें


रूपेश का यह बयान एक झलक दिखाता है, उसरणनीतिका, जो शायद बंदूक छोड़ने के बाद भी खत्म नहीं हुई है। 2024 के जनवरी से माओवाद उन्मूलन अभियान ने रफ्तार पकड़ी। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तकसशस्त्र माओवाद को समाप्तकरने का लक्ष्य रखा।


इसके बाद से फोर्स ने अभूतपूर्व अभियान चलाया। 2000 से अधिक माओवादी या तो मारे गए या आत्मसमर्पण कर चुके हैं। यह संख्या किसी भी माओवादी क्षेत्र के लिए निर्णायक मानी जा सकती है।


Representative Image

लेकिन अब एक नया खतरा उभर रहा है, वैचारिक माओवाद का। रूपेश के बयान ने यह संकेत दे दिया कि माओवादी बंदूक से नहीं, अब संविधान के शब्दों से लड़ाई लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। वो वही कानून, जो जनजातियों की रक्षा के लिए बने हैं, अब उनके राजनीतिक हथियार बन सकते हैं।


जिस तरह से रूपेश ने आत्मसमर्पण शब्द को नकार कर यह कहा कि 'उन्होंने केवल हथियार छोड़े हैं', तो यह फोर्स और जांच एजेंसियों के लिए एक चिंता का संकेत है, क्योंकि यही सरेंडर माओवादी आगे चलकर बस्तर में अलग-अलग आयामों के माध्यम से अलगाव और विकास विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा दे सकते हैं।


सिलगेर की गूंज


इस रणनीति की जड़ें दक्षिण बस्तर के सिलगेर आंदोलन में दिखाई दी थीं। सिलगेर, जो कभी माओवादियों का गढ़ माना जाता था, वहां जब सुरक्षा बलों ने एक कैंप स्थापित करने का निर्णय लिया, तो पूरा इलाका विरोध से गूंज उठा।


ग्रामीणों को आगे कर, “मूलवासी बचाओ मंचनामक संगठन ने आंदोलन छेड़ दिया। एक साल से अधिक समय तक यह आंदोलन चला। नारे, झंडे, धरना और जुलूस देखे गए। लेकिन पर्दे के पीछे असली निर्देशक माओवादी ही थे।


Representative Image

जब पुलिस ने मूलवासी बचाओ मंच के कार्यकर्ताओं को माओवादी लिंक के आरोप में पकड़ा, तो यह साफ हो गया कि यह मंच एकफ्रंटल संगठनथा, यानी माओवादियों की शहरी रणनीति का हिस्सा। बाद में सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन अब वही मंच फिर चर्चा में है, और इसके पीछे वही नाम है, रूपेश।


रूपेश ने खुलेआम कहा कि "सरकार ने मूल वासी बचाओ मंच को बंद कर दिया है। इस मंच को फिर से चालू किया जाए। इस मंच के बैनर के नीचे जो भी कार्य किया जा रहे था, उसे संवैधानिक तरीके के अनुसार चालू करवाया जाए। मूलवासी बचाओ मंच को सरकार ने जबरन बंद कर दिया था। हम चाहते हैं कि माओवादी कैडर जो जेल में बंद है उनकी रिहाई हो।"


Representative Image

सूत्रों के अनुसार सरकार इस पर विचार भी कर रही है, मीडिया रिपोर्ट्स कहती हैं कि प्रतिबंध जल्द हटाया जा सकता है। लेकिन क्या यह माओवादियों को एक और वैचारिक मंच देने जैसा नहीं होगा? एक ऐसा मंच जहां अब बंदूक की जगह संविधान की किताब होगी, लेकिन लक्ष्य वही अलगाव और अविश्वास का बीज बोना ही रहेगा।


एक नई लड़ाई लेकिन बिना बंदूक के


माओवादियों ने, जंगल की भाषा में, ‘जनता की सरकारचलाने की आदत डाली, “जन अदालतें”, “जन सेनाऔरजन संघर्ष समिति अब वे इन्हीं शब्दों को लोकतंत्र के भीतर घुसाने की कोशिश कर सकते हैं।


नक्सल मामलों के विशेषज्ञ कहते हैं किसरेंडर रणनीतिदरअसल एक शांत, दीर्घकालिक युद्ध की तैयारी है। पहले उन्होंने जंगल से लड़ाई लड़ी, अब वे संविधान के भीतर से लड़ाई लड़ेंगे। जल, जंगल, जमीन जैसे भावनात्मक मुद्दों को उठाकर वे विकास को रोकने का नया रास्ता बना सकते हैं। और यह डर सिर्फ कल्पना नहीं है।


Representative Image

यदि आजमूलवासी बचाओ मंचको वैधता दी जाती है, तो कलबाल संघम”, “क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन”, “चेतना नाट्य मंचजैसे संगठन के लिए भी यही मांग होगी।


कल को सीपीआई (माओवादी) ही स्वयं से प्रतिबंध हटाने की मांग करे, तो क्या सरकार इसे भी मांग लेगी? और फिर धीरे-धीरे, वही विचार जो जंगलों में बंदूक के साथ थे, अब पंचायत भवनों और ग्रामीण परिसरों में दस्तक देंगे।


माओवादी विचार क्या वास्तव में बदला है?


एक इंटरव्यू में रूपेश ने यह मानने से इंकार कर दिया कि माओवादियों की वजह से पिछले 4 दशकों से आम लोगों की जाने जा रहीं हैं। वह खुद को राजनीतिज्ञ और माओवादी आतंकी संगठन को राजनीतिक पार्टी ही मानता रहा। इस एक वाकये ने मुझे कुछ महीने पहले की एक मुलाकात याद दिला दी।


कुछ महीने पहले, मैंने एक माओवादी दंपति से मुलाकात की थी। दोनों ने संगठन छोड़ दिया था, विवाह किया और सामान्य जीवन की ओर लौटे। पर जब बातचीत बढ़ी, तब समझ आया कि करने की सरेंडर करने की वजह उनके विचारों में में आया कोई परिवर्तन नहीं, बल्कि विवाह और प्रेम संबंध था।


माओवादी संगठन की बातें करते हुए उनकी आंखों में जो तेज था, वो बता रहा था कि यदि उन्हें आज भी माओवादी संगठन में जाने का मौका मिल जाए, तो वो हँसी-खुशी चले जाएंगे। कुल मिलाकर बात यही थी कि माओवादी ने तो सरेंडर कर दिया था, लेकिन मन से माओवाद नहीं निकला था।


Representative Image

तो सवाल यह है कि जब रूपेश जैसा शीर्ष माओवादी, जिसने वर्षों तकमाओवादी विचरका नेतृत्व किया, अब यह कहे किहमने आत्मसमर्पण नहीं किया”, तो क्या हम उसे लोकतंत्र में सहजता से शामिल कर सकते हैं? जिसने अपने जीवन का तीन दशक हिंसा, वसूली, धमकी और हत्या में बिताया, वो कैसे अचानकसंवैधानिक संघर्षकी भाषा बोलने लगा?

जिस रूपेश को 'जनअदालत' लगाने की आदत है, वो भारतीय न्यायपालिका को किस नजर से देखेगा? वह रूपेश, जिसने आंध्रा के गृहमंत्री से लेकर बस्तर के आम जनजातीय ग्रामीणों की हत्याएं की, वो आज भी कह रहा है कि उसने "आत्मसमर्पण" नहीं किया, क्या वह भविष्य में भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं बनेगा? रूपेश के भीतर का विचार शायद अभी भी वैसा ही है, सिर्फ हथियार का माध्यम बदला है।


सरकार की असहजता


जब सोनू उर्फ भूपति ने आत्मसमर्पण किया, तब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस मौजूद थे। यह दृश्य संदेश दे रहा था कि सरकार इस आत्मसमर्पण को अपनीजीतके रूप में देख रही है।


Representative Image

पर जब रूपेश ने हथियार डाले, तो बस्तर में मुख्यमंत्री और गृहमंत्री दोनों मौजूद होने के बावजूद मंच पर कोई राजनीतिक चेहरा नहीं था। प्रशासनिक अधिकारी उपस्थित थे, लेकिन कोईराजनीतिक स्वागतनहीं हुआ। यह चुप्पी बहुत कुछ कहती है, शायद सरकार खुद भी रूपेश के इरादों को लेकर निश्चित नहीं है।


एक विचार की लंबी उम्र


माओवाद को केवल बंदूक से खत्म नहीं किया जा सकता। यह विचार के स्तर पर लड़ाई है। दशकों से इस विचार नेअसंतोषको अपने पक्ष में किया, जनजातीय अस्मिता, वनाधिकार, विस्थापन, खनन, रोजगार जैसे विषयों से उपजी पीड़ा को एकराजनीतिक हथियारबना दिया।


Representative Image

आज जब विकास की सड़क अबूझमाड़ तक पहुँच रही है, जब बिजली और शिक्षा गांवों तक पहुंच रही है, तब यह विचार अपने अस्तित्व के लिए नए रास्ते ढूंढ रहा है। रूपेश और उसके जैसे कईसरेंडर माओवादीशायद अब वही पुल बनेंगे, जो माओवादी विचार को जिंदा रखने की कोशिश करेंगे।


इंद्रावती के किनारे से शुरू हुई यह "अंत के आरंभ" की कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या वाकई यहअंतहै, या किसी नए अध्याय की भूमिकाजंगल में बंदूकें तो झुकी हैं, पर विचार अभी भी खड़ा है। सरकार ने युद्ध तो जीता है, पर शायद वैचारिक जंग अभी भी बाकी है, और यही बस्तर की सच्चाई है।

शुभम उपाध्याय

संपादक, स्तंभकार, टिप्पणीकार