मातृत्व, शौर्य और नेतृत्व का दुर्लभ संगम, रानी लक्ष्मी बाई की विरासत

कम उम्र में युद्धकला सीखकर रानी लक्ष्मी बाई ने प्रतिरोध की उस परंपरा को जन्म दिया जिसे भारतीय स्मृतियों में गौरव से स्मरण किया जाता है।

The Narrative World    20-Nov-2025
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भारत ने आज रानी लक्ष्मी बाई की जयंती पर उन्हें उनके साहस, नेतृत्व और स्वतंत्रता संग्राम में निभाई ऐतिहासिक भूमिका के लिए याद किया। देशभर में श्रद्धांजलि, रैलियों और विशेष कार्यक्रमों के माध्यम से लोगों ने उनके प्रति सम्मान व्यक्त किया।
 
आज उनकी जयंती गर्व, सम्मान और गहरी राष्ट्रभक्ति की भावना के साथ मनाई जाती है। 19 नवंबर 1828 को वाराणसी में मनिकर्णिका तांबे के रूप में जन्मी लक्ष्मी बाई केवल झांसी की रानी नहीं थीं। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा, आत्मबल और संघर्ष की पहचान मानी जाती हैं। बचपन में मनु नाम से पुकारे जाने वाली मनिकर्णिका ने शुरुआती दिनों से ही अदम्य इच्छाशक्ति दिखाई।
 
देश के कई शहरों जैसे झांसी, वाराणसी और दिल्ली में आज उनकी प्रतिमाओं पर पुष्पांजलि अर्पित की गई। झांसी के मुख्य समारोह में किले पर गार्ड ऑफ ऑनर दिया गया। सड़कों पर निकली रंगीन रैलियों में बच्चे, NCC कैडेट और बड़ी संख्या में स्थानीय लोग शामिल हुए। देशभक्ति के गीतों और नारों ने पूरा माहौल उत्साह से भर दिया।
 
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स्कूलों और कॉलेजों में भी दिन विशेष तरीके से मनाया गया। सभाओं, निबंध प्रतियोगिताओं और नाट्य प्रस्तुतियों के जरिए छात्रों ने लक्ष्मी बाई के बचपन, घुड़सवारी प्रशिक्षण और 1857 के विद्रोह में उनके अदम्य साहस को मंच पर जीवंत किया। कई संस्थानों ने उन्हें आत्मसम्मान, साहस और महिला सशक्तिकरण का प्रतीक बताते हुए उनके जीवन से प्रेरणा लेने का संदेश दिया।
 
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने अपने संदेशों में रानी लक्ष्मी बाई को ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रारंभिक संघर्ष की प्रमुख नेताओं में से एक बताया। उन्होंने कहा कि उस समय, जब महिलाओं की सार्वजनिक या सैन्य भूमिकाएँ बेहद कम थीं, लक्ष्मी बाई ने अपने दृढ़ संकल्प से इतिहास को नई दिशा दी।
 
 
1842 में उनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव से हुआ। विवाह के बाद वे रानी लक्ष्मी बाई के नाम से जानी जाने लगीं। पति और पुत्र की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने उनके दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी नहीं माना और झांसी पर कब्जा कर लिया। इसके बाद रानी ने संघर्ष का मार्ग चुना।
 
कम उम्र में ही घुड़सवारी और युद्धकला का अभ्यास कर लेने वाली लक्ष्मी बाई जल्द ही एक निडर योद्धा के रूप में पहचानी जाने लगीं। तलवार चलाते हुए सेना का नेतृत्व करने वाली उनकी छवि आज भी देश की स्मृतियों में जीवित है। उनका प्रसिद्ध युद्धघोष खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी आज भी भारतीय वीरता की अमर पुकार माना जाता है।
 
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1857 के संग्राम में वे अग्रणी भूमिका में रहीं। उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपने राज्य और जनता की रक्षा के लिए निर्णायक युद्ध लड़ा। वे धर्मनिरपेक्ष शासक के रूप में भी जानी गईं, क्योंकि उनकी सेना में विभिन्न पृष्ठभूमियों के लोग शामिल थे। उन्होंने महिलाओं को युद्ध और घुड़सवारी का प्रशिक्षण देकर उन्हें सशक्त बनाने की पहल की।
 
18 जून 1858 का दिन भारतीय इतिहास में अमर है। इसी दिन कोताह की सेराई में ब्रिटिश सैनिकों से लड़ते हुए मात्र 29 वर्ष की आयु में रानी लक्ष्मी बाई वीरगति को प्राप्त हो गई। युद्धभूमि में अपने पुत्र को पीठ पर बांधकर उतरने की उनकी छवि मातृत्व, नेतृत्व और साहस का ऐसा प्रतीक है जो हर भारतीय के मन में अंकित है।
 
 
तात्या टोपे और अन्य क्रांतिकारियों के साथ उनका संघर्ष तथा ग्वालियर का अंतिम युद्ध आज भी भारतीय वीरता की सर्वोच्च मिसाल है। रानी लक्ष्मी बाई आज भी राष्ट्रवाद, प्रतिरोध और देशभक्ति की अटूट प्रेरणा हैं।
 
उनकी कहानी आज भी महिलाओं और युवाओं को दृढ़ता, संकल्प और नेतृत्व का संदेश देती है। वह इस बात की प्रबल मिसाल हैं कि महिलाएँ किसी भी क्षेत्र में नेतृत्व करने की पूरी क्षमता रखती हैं।
 
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मोक्षी जैन
उपसंपादक, द नैरेटिव