क्या सोनी सोरी अर्बन नक्सल हैं?

माओवादी कमांडर हिडमा के अंतिम संस्कार में सोनी सोरी की उपस्थिति और उसके शरीर पर काली वर्दी चढ़ाने की घटना ने एक बड़ा सवाल खड़ा किया है, क्या मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में स्थापित सोनी सोरी वास्तव में अर्बन नक्सल हैं? 14 वर्षों के सबूतों के आधार पर जानिए पूरी सच्चाई।

The Narrative World    22-Nov-2025
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दो दिन पहले खबर आई थी कि कुख्यात नक्सली हिडमा मारा गया। आज उसके गाँव पुवर्ती में उसका अंतिम संस्कार हुआ, जहाँ सोनी सोरी उसकी मौत पर मातम मनाने पहुँच गईं। एक कथित सामाजिक कार्यकर्ता को कम्युनिस्ट आतंकवादी या माओवादी के प्रति ऐसी सहानुभूति क्यों है? यदि सोनी सोरी के अतीत और वर्तमान को खंगाला जाए, तो पता चलता है कि उनका संबंध माओवादी संगठन से रहा है, लेकिन उनकी छवि एक सामाजिक कार्यकर्ता की बनाई गई है।
 
उनके क्रियाकलापों को देखकर यह संदेह गहराता है कि वह अर्बन नक्सल ही हैं। तो क्या वह सच में एक अर्बन नक्सल हैं? अगर हाँ, तो अभी तक इस शहरी माओवादी पर कोई कठोर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? आइए इन सभी प्रश्नों का उत्तर खोजते हैं। पर उससे पहले हमें यह समझना होगा कि आखिर अर्बन नक्सल होते कौन हैं।
 
अर्बन नक्सल क्या होता है?
 
माओवाद एक आतंकी विचारधारा है जो भारत में नक्सलवाद के नाम से भी जानी जाती है। एक आम धारणा प्रचलित है कि नक्सलवाद का आतंक केवल जंगलों तक सीमित है। लेकिन सच यह है कि नक्सलवाद का असली काम शहरों में होता है, विचारधारा को फैलाना और समाज में कम्युनिज़म का नैरेटिव स्थापित करना। यही असल में माओवादियों या कहें कम्युनिस्टों का मुख्य एजेंडा है।
 
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इसीलिए, जो लोग शहरों में रहकर यह काम करते हैं, उन्हें 'अर्बन नक्सल' कहा जाता है। अर्बन नक्सल कोई भी हो सकते हैं: विश्वविद्यालयों के कुछ शिक्षक और छात्र संगठन, मीडिया और सांस्कृतिक मंचों से जुड़े कार्यकर्ता, मानवाधिकार और एनजीओ के नाम पर सक्रिय लोग, या फिर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की छवि खराब करने वाले एक्टिविस्ट। इन्हीं में सोनी सोरी जैसे कथित सामाजिक कार्यकर्ताओं का नाम भी आता है।
 
सोनी सोरी कैसे अर्बन नक्सल हैं?
 
अभी कुछ दिन पहले एक नक्सली चंद्रन्ना ने आत्मसमर्पण किया और कहा कि "नक्सली विचारधारा कभी समाप्त नहीं होगी"। आश्चर्य की बात यह है कि शीर्ष नक्सली भूपति के आत्मसमर्पण के बाद सोनी सोरी ने तेलंगाना जाकर प्रेस कॉन्फ्रेंस की और ठीक वही बात दोहराई कि "नक्सलवाद खत्म नहीं होगा"। अब एक माओवादी और एक सामाजिक कार्यकर्ता के विचारों में यह समानता किस ओर संकेत कर रही है?
 
यह कोई अकेली घटना नहीं है। ऐसी अनेक घटनाएं हैं जो सोनी सोरी के अर्बन नक्सल होने को सिद्ध करती हैं। आज जब हिडमा का अंतिम संस्कार हुआ, तब सोनी सोरी ने उसके घर जाकर उसके शरीर पर काली वर्दी चढ़ाई और उसकी छाती से लिपटकर रोने की तस्वीरें भी सामने आईं। ये माओवादी समर्थक जैसी हरकतें क्या साबित करती हैं, यह आप स्वयं समझ सकते हैं।
 
सोनी ने माड़वी हिडमा की मौत को एनकाउंटर नहीं बल्कि "मर्डर" कहा। वही हिडमा जिस पर ₹1 करोड़ का इनाम था और जो सैकड़ों सुरक्षाकर्मियों की मौत के लिए जिम्मेदार था। उन्होंने कहा कि उसका सशस्त्र संघर्ष "आदिवासी अधिकारों से जुड़ा था।" यह कोई पहली बार नहीं है। यह हर सुरक्षा अभियान को "फर्जी" बताने का एक व्यवस्थित पैटर्न है, चाहे वह हिडमा का एनकाउंटर हो या अबूझमाड़ का। माओवादी कमांडर हिडमा पर शोक जताते हुए उनके हालिया बयान और उसके सशस्त्र संघर्ष को आदिवासी अधिकारों से जोड़ना, क्या यह उग्रवाद विरोधी प्रयासों को कमजोर करने और सशस्त्र आतंकवादियों को वैचारिक संरक्षण देने का काम नहीं है? एक सामाजिक कार्यकर्ता और एक माओवादी आतंकवादी के प्रति ऐसी सहानुभूति स्पष्ट संकेत है कि सोनी सोरी अर्बन नक्सल हैं।
 
सशस्त्र आतंकवादियों को "वैचारिक संरक्षण"
 
सोनी सोरी ने नवंबर 2025 में पुवर्ती गाँव में हिडमा के अंतिम संस्कार में जाकर उसके शरीर पर काली वर्दी चढ़ाई, उसे "बस्तर का दूसरा गुंडाधूर" कहा और दावा किया कि "उसने आदिवासियों के लिए लड़ाई लड़ी।" यह कोई मानवाधिकार का कार्य नहीं, बल्कि ₹1 करोड़ के इनामी आतंकवादी को औपचारिक सम्मान देना है। सोनी सोरी माओवादी हिंसा को "आदिवासी अधिकार संघर्ष" बताकर आतंकवाद को नैतिक औचित्य प्रदान करती हैं।
 
 
हिडमा पर उनका बयान था, "उसका हथियार उठाने का निर्णय जल, जंगल, जमीन के संघर्ष से गहराई से जुड़ा था।" यह बिल्कुल वही माओवादी नारा है। उन्होंने कहा, "आदिवासी संघर्ष अब भी जारी रहेगा।" ध्यान दें, वह हिडमा को "आतंकवादी जिसने सुरक्षाकर्मियों को मारा" नहीं कहतीं, बल्कि "आदिवासी नेता" कहती हैं जिसे सरकार "बर्दाश्त नहीं कर सकी।" यह आतंकवाद को वैध जनजातीय नेतृत्व के रूप में पेश करना है। सशस्त्र विद्रोहियों को "स्वतंत्रता सेनानी" बताकर, क्या वह उस हिंसा को वैध नहीं ठहरा रही हैं जिसने हजारों सुरक्षाकर्मियों और ग्रामीण नागरिकों की जान ली है?
 
"फर्जी एनकाउंटर" का झूठा विमर्श
 
सोनी सोरी का एक निश्चित पैटर्न है: हर सुरक्षा बल अभियान को तुरंत "फर्जी एनकाउंटर" बताना। यह उग्रवाद विरोधी प्रयासों को कमजोर करता है। इनके व्यवस्थित रिकॉर्ड पर एक नज़र डालें:
 
2015: हेलमा पोदिया एनकाउंटर को "मनमानी हत्या" कहा।
 
2016: हिडमा (एक अन्य नक्सली) एनकाउंटर को फर्जी बताया और दावा किया उसे "घर से उठाया गया।"
 
अगस्त 2018: 15 माओवादियों के एनकाउंटर को झूठा बताया और उन्होंने आप (AAP) की फैक्ट फाइंडिंग टीम का भी नेतृत्व किया।
 
दिसंबर 2024: अबूझमाड़ एनकाउंटर को फर्जी बताया, दावा किया उसमें बच्चे घायल हुए और मारे गए लोग माओवादी नहीं थे। साथ ही आरोप लगाया कि सुरक्षा बलों ने महिलाओं से बलात्कार किया।
 
2025: माड़वी हिडमा एनकाउंटर को "फर्जी" कहा और आरोप लगाया "उसे पहले पकड़ा गया फिर मार दिया गया।"
 
सोनी सोरी व्यवस्थित रूप से हर माओवादी विरोधी अभियान को अवैध ठहराती हैं और माओवादियों को पीड़ित दिखाकर उन्हें प्रचार संरक्षण देती हैं। यह लगातार पैटर्न क्या साबित करता है? सबूत की परवाह किए बिना सुरक्षा बलों के खिलाफ पूर्व निर्धारित पूर्वाग्रह। हर अभियान "फर्जी" बन जाता है, जो माओवादियों के लिए प्रचार सामग्री बनाता है। क्या यह संयोग है या सुनियोजित रणनीति?
 
स्वतंत्र जांच होनी चाहिए?
 
सोनी सोरी कहती हैं कि वह हिडमा की हत्या पर "अदालत का रुख करेंगी और स्वतंत्र जांच की मांग करेंगी।" इस पैटर्न पर गौर करें, सुरक्षा बल कोई भी सबूत दें, वह उसे अस्वीकार कर देती हैं और "स्वतंत्र" जांच की मांग करती हैं। यह सभी अभियानों के बारे में सदा के लिए संदेह पैदा करता है। कोई भी एनकाउंटर हो, कोई भी आधिकारिक रिपोर्ट हो, कोई भी जांच हो, कोई भी सबूत हो, सोनी सोरी को कभी मान्य नहीं होता। हर बार "स्वतंत्र जांच" की मांग की जाती है।
 
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स्वतंत्र जांच के नाम पर वे कथित फैक्ट फाइंडिंग मिशन का नेतृत्व करती हैं जिसका निष्कर्ष हमेशा माओवादी समर्थक ही आता है। क्या यह निष्पक्षता है या सुरक्षा बलों पर हमेशा के लिए संदेह का बादल बनाए रखने की रणनीति? जब हर बार राज्य की जांच खारिज की जाए और "स्वतंत्र" जांच की मांग की जाए, तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास है या उसे कमजोर करने का षड्यंत्र? यह किसे लाभ पहुंचाता है? सिर्फ माओवादियों को, जो इस संदेह का फायदा उठाते हैं।
 
माओवादियों से संदिग्ध साझेदारी
 
सोनी सोरी माओवादी ग्रस्त बस्तर क्षेत्र में रहती और काम करती हैं। वह उन जनजातीय इलाकों में पढ़ाती हैं जहाँ माओवादी सक्रिय हैं। वह पलनार, समेली, जबेली, गीदम जैसे मुख्य माओवादी क्षेत्रों में रहती हैं। खुद उनकी स्वीकारोक्ति है, "कई बार मैंने दोनों पक्षों से बैठकर बात की है।"
 
 
सीआरपीएफ का मानना है कि "90% ग्रामीण माओवादियों के संपर्क में हैं।" माओवादियों ने उन्हें दो बार तथाकथित "पीपुल्स कोर्ट" में बुलाया, फिर भी वह सुरक्षित और जीवित हैं। संघर्ष क्षेत्रों में तटस्थता असंभव होती है। माओवादी इलाकों में उनकी स्वतंत्र आवाजाही और उनका लगातार हर सुरक्षा अभियान पर सवाल उठाना चयनात्मक सहयोग का स्पष्ट संकेत है। वह स्पष्ट सुरक्षा के साथ माओवादी क्षेत्र में काम करती हैं। जहाँ पत्रकारों और वकीलों को बेदखल कर दिया जाता है, वहाँ वह आजादी से यात्रा करती हैं। बिना गिरफ्तार हुए माओवादी अंतिम संस्कार में शामिल हो सकती हैं। असली सवाल यह है, जहाँ माओवादी सक्रिय हैं, वहाँ वह इतनी आजादी से कैसे घूमती हैं? या तो माओवादी उन पर भरोसा करते हैं (जो गठजोड़ का संकेत है) या फिर वे स्वयं माओवादियों के साथ काम करती हैं।
 
विचारों में मेल और प्रशासन के विरुद्ध बोल
 
सोनी सोरी का दृष्टिकोण माओवादी वर्ग विश्लेषण के साथ पूरी तरह मिलता जुलता है, जिसमें कंपनी, जमींदार और राज्य सब उत्पीड़क हैं। वह "जिंदल, अडानी" को जनजातीय समस्याओं के लिए दोषी ठहराती हैं और दावा करती हैं कि जमींदार हिंसा के मुख्य लाभार्थी हैं। वे राज्य को जनजातीय विरोधी बताती हैं और उसे जनजातीय भूमि के अवैध कब्जेदार के रूप में प्रस्तुत करती हैं। यह विशुद्ध माओवादी विश्लेषण है, जिसमें पूंजीवादी सामंती गठजोड़ सर्वहारा का उत्पीड़न कर रहा है, जो कथित क्रांति को उचित ठहराता है।
 
इसके अतिरिक्त, निरंतर झूठे मुकदमे और झूठे प्रचार के माध्यम से राज्य प्रशासन को कमजोर करना, यह क्लासिक अर्बन नक्सल रणनीति है। सोनी सोरी अदालतों, मीडिया और एक्टिविज़म के माध्यम से राज्य को दोषी ठहराती हैं। उन्होंने पुलिस अधिकारियों, विशेष रूप से आईजी कल्लूरी के खिलाफ कई एफआईआर दर्ज कीं। वे अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को विस्तृत साक्षात्कार देती हैं जिनमें राज्य प्रशासन को उत्पीड़क बताया जाता है, और साथ ही वे उन अंतर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा समर्थित हैं जो भारत विरोधी नैरेटिव को बढ़ावा देते हैं।
 
पुलिस अधिकारियों ने सीधे सोनी सोरी पर माओवादी समर्थन का आरोप लगाया है। कुछ साल पहले सोनी पर हुआ हमला भी चर्चा में रहा था। बस्तर के डीएम अमित कटारिया ने सार्वजनिक रूप से कहा कि उन पर हुआ हमला "मंचित" था, यानी नाटक था। ये कोई साधारण अधिकारी नहीं हैं, ये वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारी हैं जिनके पास ज़मीनी जानकारी है और जो रोज़ माओवादी हिंसा से जूझते हैं।
 
अर्बन नक्सल तंत्र से संबंध
 
सोनी सोरी उन लोगों के तंत्र से जुड़ी हैं जो माओवादी विद्रोह को समर्थन देते हैं। उनके मार्गदर्शक हिमांशु कुमार हैं, जिनका आश्रम माओवादी संबंधों के आरोपों के बाद ध्वस्त कर दिया गया था। उन्होंने आम आदमी पार्टी (AAP) ज्वाइन की जो गंभीर आरोपों के बावजूद उन्हें टिकट देती है। अरुंधति रॉय, जो कि ज्ञात माओवादी समर्थक हैं, उनका बचाव करती हैं। वह बेला भाटिया के साथ काम करती हैं जो भी माओवादी समर्थक कही जाती हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच उनका बचाव करते हैं। यह पूरा "अर्बन नक्सल इकोसिस्टम" है।
 
प्रशासन ही दोषी? एकतरफा सक्रियता
 
सोनी सोरी की वकालत स्पष्ट पूर्वाग्रह दिखाती है। पुलिस कार्रवाई पर चीखना चिल्लाना, लेकिन माओवादी हिंसा पर मौन या धीमी आवाज़। वे कथित पुलिस अत्याचारों का व्यापक विरोध करती हैं, लेकिन केवल एक पक्ष की बयानबाजी से आलोचना करती हैं। उनका 90% एक्टिविज़म राज्य को निशाना बनाता है। वे नागरिकों पर माओवादी हमलों के बाद कभी फैक्ट फाइंडिंग मिशन नहीं करतीं।
 
 
उनके लिए राज्य बुरा है और माओवादी "संघर्षरत आदिवासी" हैं। जब माओवादी आईईडी से सुरक्षाकर्मी शहीद होते हैं, तब सोनी सोरी कहाँ होती हैं? जब माओवादी बच्चों को जबरन भर्ती करते हैं, तब उनकी आवाज़ कहाँ होती है? जब माओवादियों द्वारा मारे गए सुरक्षाकर्मियों के परिवार रोते हैं, तब वह उनके अंतिम संस्कार में क्यों नहीं जातीं? यह एकतरफा एक्टिविज़म स्पष्ट संकेत है कि सोनी सोरी अर्बन नक्सल हैं।
 
सुरक्षा अभियानों में बाधा और AAP से संबंध
 
सोनी सोरी के हस्तक्षेप सक्रिय रूप से माओवादी विरोधी अभियानों को बाधित करते हैं। जांच शुरू होने से पहले ही वह एनकाउंटर स्थलों पर पहुंच जाती हैं "गवाह से गवाही" इकट्ठा करने के लिए। सक्रिय अभियानों के दौरान कमांडरों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का प्रयास करती हैं। गाँव की बैठकों के माध्यम से सुरक्षा बलों की उपस्थिति के खिलाफ स्थानीय विरोध खड़ा करती हैं।
 
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2014 में आम आदमी पार्टी ने लंबित आरोपों के बावजूद सोनी सोरी को बस्तर निर्वाचन क्षेत्र से टिकट दिया। आलोचकों का तर्क है कि यह माओवादी समर्थकों के प्रति सहिष्णुता दर्शाता है। 2018 में जब नए आरोप सामने आए, तो AAP ने उनका बचाव किया। सवाल यह है कि एक राजनीतिक पार्टी जो गंभीर आरोपों वाली व्यक्ति को न केवल टिकट देती है बल्कि उसका बचाव भी करती है, यह क्या संदेश दे रही है? क्या AAP भी माओवादी समर्थक है?
 
नवंबर 2025 का बयान: "आदिवासी संघर्ष जारी रहेगा"
 
हिडमा की मौत के बाद, सोनी सोरी ने कहा "आदिवासी संघर्ष अब भी जारी रहेगा।" वह लोकतांत्रिक विरोध की बात नहीं कर रही हैं, बल्कि वह एक शीर्ष माओवादी कमांडर की मृत्यु के बाद सशस्त्र संघर्ष जारी रखने की बात कर रही हैं। यह विद्रोह को जारी रखने का खुला समर्थन है। जब एक इनामी आतंकवादी मारा जाता है और कोई "संघर्ष जारी रहेगा" कहता है, तो वह किस संघर्ष की बात कर रहा है? लोकतांत्रिक प्रक्रिया की या सशस्त्र विद्रोह की?
 
प्रशासन ने क्या किया?
 
प्रशासन ने 2011 में सोनी सोरी को गिरफ्तार किया था और उनके भतीजे लिंगा कोडोपी को एस्सार ठेकेदार से माओवादियों को ₹15 लाख लेवी देने के लिए गिरफ्तार किया गया था। लेकिन माओवादी तंत्र के प्रभाव के कारण वे रिहा हो गए। हालांकि सोनी सोरी को 2011 में अपर्याप्त सबूतों के कारण विशिष्ट आरोपों से बरी कर दिया गया था, लेकिन 14 वर्षों में उनके व्यवहार का निरंतर पैटर्न स्पष्ट माओवादी समर्थन प्रकट करता है जो राष्ट्रीय सुरक्षा को कमजोर करता है।
 
 
इसमें कोई संदेह नहीं कि 2011 का मामला फिर से खोला जाना चाहिए और उसका पुनर्मूल्यांकित होना चाहिए। संभव है कि उनका मामला झूठा नैरेटिव स्थापित करने वालों द्वारा हेरफेर किया गया था। जब 14 साल का सबूत सामने है, तो क्या उस पुराने फैसले को फिर से देखने का समय नहीं आ गया है? तब जो "अपर्याप्त सबूत" थे, क्या अब वे पर्याप्त नहीं हैं?
 
निष्कर्ष
 
सोनी सोरी खुद को मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में स्थापित करती हैं, लेकिन उनके कार्य माओवादी विद्रोह के लिए व्यवस्थित समर्थन प्रकट करते हैं। उन्होंने भारत के सबसे वांछित आतंकवादी के अंतिम संस्कार में भाग लिया और उसे सम्मानित किया। वह हर माओवादी विरोधी अभियान को 'फर्जी' बताकर अवैध ठहराती हैं और आतंकवादियों को 'आदिवासी नेता' के रूप में प्रस्तुत करती हैं।
 
सोनी सोरी जैसे अर्बन नक्सल देश के लिए उतने ही खतरनाक हैं जितने जंगलों में हथियार उठाए माओवादी। जंगल में लड़ाई दिखती है, लेकिन शहरों में चलने वाली यह वैचारिक जंग अदृश्य और अधिक घातक है। ये लोग मानवाधिकार का मुखौटा पहनकर देश की जड़ों में घुन की तरह लगे हैं। राज्य प्रशासन को उनके जैसे लोगों के खिलाफ सख्त से सख्त कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए। 2011 का मामला तत्काल फिर से खोला जाना चाहिए। जब तक ऐसे अर्बन नक्सलों को खुली छूट मिलती रहेगी, तब तक हमारे सुरक्षाकर्मी शहीद होते रहेंगे और माओवादी विचारधारा फैलती रहेगी। समय आ गया है कि हम जागें और इन शहरी देशद्रोहियों को पहचानें।
 
लेख
 
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आदर्श गुप्ता
युवा शोधार्थी