हिड़मा के पक्ष में खड़े लोग भारतीय लोकतंत्र के विरुद्ध खड़े हैं

माड़वी हिड़मा की मौत ने न केवल लाल आतंक की जड़ें हिलाईं, बल्कि उन शहरी नक्सली समूहों और राजनीतिक तत्वों को भी बेनकाब कर दिया जो एक खूनी आतंकी को ‘नायक’ साबित करने में लगे थे। हिड़मा का महिमामंडन वास्तव में भारत के लोकतंत्र और सुरक्षा तंत्र के खिलाफ खड़ी वैचारिक लड़ाई का हिस्सा है।

The Narrative World    28-Nov-2025   
Total Views |

Representative Image

माड़वी हिड़मा की मौत केवल एक माओवादी आतंकी के अंत की खबर नहीं है, बल्कि भारत के लोकतंत्र की परीक्षा का वह क्षण है जिसमें यह साफ दिखाई देता है कि किसके भीतर राष्ट्र के प्रति निष्ठा है और कौन इस देश के भीतर छिपे हुए वैचारिक गिरोहों का मुखपत्र बन चुका है।


हिड़मा कोई साधारण नक्सली नहीं था; वह एक संगठित, प्रशिक्षित, निर्मम और विचारधारात्मक आतंक की मशीन था, जिसे CPI (Maoist) ने कम्युनिज़्म की विचारधारा के साथ वर्षों में गढ़ा था।


Representative Image

हिड़मा की मौत के बाद जिस तरह शहरी नक्सल नेटवर्क, विदेशी संगठनों से प्रेरितमानवाधिकारकार्यकर्ता, कट्टर वामपंथी छात्र समूह और यहां तक कि कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने उसके लिए सार्वजनिक संवेदना व्यक्त की, वह भारत की लोकतांत्रिक आत्मा पर सीधा प्रहार है।


एक ऐसे व्यक्ति का पक्ष लेना जिसने झीरम घाटी में राष्ट्र के नेताओं को मौत के घाट उतारा, जिसने सुरक्षा बलों के सैकड़ों जवानों को छल और विश्वासघात के जरिए बलिदान कर दिया, जिसने बस्तर के जनजातीय समाज को मानव ढाल की तरह इस्तेमाल किया और विकास को विनाश की आग में झोंक दिया, उसका बचाव करना किसी भी तरह सेवैचारिक मतभेदनहीं, बल्कि आतंक के पक्ष में खड़ा होना है।


Representative Image

भारत के लोकतंत्र में असहमति एक अधिकार है, लेकिन आतंकवाद का महिमा-मंडन करना, हत्यारे को नायक बनाना, और हिंसा कोजनयुद्धकहकर उसका समर्थन करना किसी भी सभ्य राष्ट्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं कहलाता।


हिड़मा के साथ खड़े होने वाले वे लोग हैं जिन्हें लोकतंत्र की असली परिभाषा से कोई वास्ता नहीं, बल्कि उनका वास्तविक लक्ष्य इस लोकतंत्र को अंदर से खोखला करना है।


“ये वही समूह हैं जो सुरक्षा बलों को ‘दमनकारी’, आतंकियों को ‘भटके युवा’, और हिंसा को ‘प्रतिरोध’ बताते हैं। ये वही लोग हैं जो कश्मीर में अलगाववादियों के पक्ष में खड़े होते हैं, पंजाब में खालिस्तानी तत्वों को ‘अधिकारवादी संघर्ष’ बताते हैं, और माओवादी हिंसा को ‘क्रांतिकारी रास्ता’ कहकर भारतीय संविधान की धज्जियां उड़ाते हैं।”

 


माड़वी हिड़मा का इतिहास केवल खून और नरसंहार की कहानी है। दंतेवाड़ा में 76 CRPF जवानों का नरसंहार, झीरम घाटी में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का नरसंहार, 2017 और 2021 के सुकमा-बीजापुर में हुए हमले, निर्दोष ग्रामीणों की हत्याएँ, जनजातीय युवाओं की जबरन भर्ती, पंचायतों को तोड़ना, स्कूलों में बारूदी सुरंगें बिछाना, यह कोईविचारधारानहीं, यह सुनियोजित आतंक था।


Representative Image

एक ऐसा आतंक जिसने राज्य को चुनौती दी, लोकतंत्र पर वार किया और वनवासियों की पीड़ा को हथियार बनाकर उनके नाम पर उन्हें ही मारा। हिड़मा किसी भी अर्थ मेंविरोध का चेहरानहीं था, वह माओवादी नेतृत्व का वह पैशाचिक अस्त्र था जिसने जंगलों को युद्धभूमि और जनजातीय समुदाय को बंधुआ योद्धा बना दिया। उसके लिए सहानुभूति दिखाना सीधे-सीधे हिंसा को नैतिकता देना है।


लेकिन हिड़मा के मरते ही तुरंत जो प्रतिक्रिया बस्तर से लेकर दिल्ली के कुछ समूहों और NGOs में दिखाई दी, वह कहीं ज्यादा चिंताजनक है। जो लोग हिड़मा के शव से लिपटकर रोने का "नाटक" कर कोर्ट जाने की बात रहे थे या दिल्ली की सड़कों पर “Hidma Amar Rahe”, “Red Resistance Lives” और “Stop Killing Revolutionaries” जैसे नारे लगा रहे थे, वे केवल एक आतंकवादी का समर्थन नहीं कर रहे थे, बल्कि वे भारत के खिलाफ चल रहे एक बड़े वैचारिक युद्ध में खुलकर अपनी स्थिति बता रहे थे।


Representative Image

दिल्ली की घटना तो और अधिक गंभीर है, क्योंकि जिस शहर में संसद है, उसी शहर में ऐसे लोग खुलेआम एक आतंकी के समर्थन में जुलूस निकालकर यह साबित कर रहे थे कि माओवाद का हिंसात्मक विचार केवल जंगलों तक सीमित नहीं है; वह विश्वविद्यालयों, मीडिया संस्थानों और वाम-वैचारिक NGOs में भी गहरी जड़ों के साथ मौजूद है।


Representative Image

दिल्ली में "प्रदूषण" का बहाना बनाकर जिस तरह से माओवद-नक्सलवाद और हिड़मा के समर्थन में नारे लगे हैं, उसके पीछे भगत सिंह छात्रा एकता मंच (bSCEM) और द हिमखंड जैसे "हार्डकोर" माओवादी विचारक संगठन का हाथ है। ग़ौरतलब है कि इसी द हिमखंड संगठन ने हाल ही में प्रशांत भूषण जैसे कम्युनिस्ट विचारक को "एयर पलूशन" के विषय पर एक कार्यक्रम में वक़्ता के तौर पर बुलाया था, और ठीक इसके बाद "एयर पलूशन" के विरोध के नाम पर ही माओवदी समर्थक नारे लगाए गए।


वहीं bSCEM एक ऐसा संगठन है जो लगातार अपने सोशल मीडिया पर भारतीय सुरक्षा बलों के विरुद्ध नकारात्मक टिप्पणियाँ कर रहा था, साथ ही नक्सलवाद-माओवाद के समर्थन में पोस्ट किए जा रहा था। वहीं मई के माह में सोशल मीडिया पर कुछ माओवाद समर्थित स्लोगन लिखे गए थे, जैसे - "2025 में 47 मारे गए, वहीं 2024 से अभी तक 300 से अधिक मारे गए। आम लोगों पर युद्ध को रोको।" "ऑपरेशन कगार को रोको। लोगों पर युद्ध को रोको।"


इसके अलावा इसी माओवाद समर्थित संगठन ने लोकसभा चुनाव से पूर्व दिल्ली विश्वविद्यालय के दीवारों पर स्लोगन लिखा था कि -


"नक्सलबाड़ी ना खत्म हुआ और ना कभी खत्म होगा"

"लॉन्ग लिव कॉमरेड चारू"

"चुनाव का बहिष्कार करो और नए डेमोक्रेटिक क्रांति से जुड़ों"

"चुनाव का बहिष्कार करो"

"एक ही रास्ता - नक्सलबाड़ी"

"लॉन्ग लिव नक्सलबाड़ी"

"अमार बारी, तोमार बारी, नक्सलबाड़ी"


इस शहरी नक्सलवादी संगठन ने जंगल में बैठे गुरिल्ला नक्सलियों की रणनीति को अपनाते हुए चुनाव का बहिष्कार कर "भारत के विरुद्ध क्रांति" का आह्वान किया था। ध्यान रहे, इनकी क्रांति का अर्थ ही यही है कि ये नक्सलियों की तरह भारत के गणतांत्रिक और लोकतांत्रिक मूल्यों को खत्म करना चाहते हैं, जिसके लिए हिंसा का सहारा लेना होगा।


Representative Image

अब सवाल यह है कि हिड़मा जैसे आतंकी का समर्थन क्यों किया जा रहा है जिसके हाथ नेताओं, जवानों और नागरिकों के खून से रंगे हुए हैं? इसका सीधा उत्तर है कि नक्सलवाद की विचारधारा सिर्फ बम और बंदूक से नहीं चलती, वह शब्दों, लेखों, पोस्टरों, स्लोगनों और अंतरराष्ट्रीय मीडिया-वर्णन से भी चलती है।


हिड़मा जैसे हत्यारे की मौत इनके लिए दुखद इसलिए है क्योंकि वह उनके नैरेटिव का सबसे बड़ाफील्ड कमांडरथा। उसकी मृत्यु उनके दावों की जड़ काटती है किनक्सल आंदोलन जनजातियों-वंचितों का संघर्ष है।हिड़मा की हिंसा ने ही दुनिया को असल सत्य दिखाया कि यह आंदोलन वंचितों का नहीं, बल्कि वंचितों पर टिके हुए आतंक का नेटवर्क है।


नक्सलवाद का समर्थन करने वाले इन समूहों का हमेशा कहना होता है कि "मरने वाले लोग स्थानीय ग्रामीण हैं, जनजाति हैं, आम लोग हैं। पुलिस इनके ऊपर बम फोड़ देती है, महिलाओं का यौन शोषण करती है और ग्रामीणों को प्रताड़ित करती है।" लेकिन यह सच नहीं है।


सच्चाई यह है कि ये सभी कृत्य नक्सली-माओवादियों द्वारा किए जाते हैं, और बस्तर के जनजातीय ग्रामीण हर दिन इस दर्द को झेलते आए हैं। बस्तर में नक्सलियों के कारण पिछले 20 वर्षों में हजारों लोग मारे जा चुके हैं, यह सच्चाई है।


Representative Image

नक्सलियों के आइईडी की चपेट में आने वाली राधा सलाम की कहानी हो, या आज भी अपनी आंखों को खोने की कहानी सुनाते हुए रो पड़ने वाले सोड़ी राहुल की जिंदगी हो, ऐसे हजारों परिवार हैं जिन पर फोर्स ने नहीं बल्कि 'नक्सलियों' ने बॉम्बिंग की है, अर्थात बम विस्फोट से उड़ाया है, यह सच्चाई है। वहीं बस्तर क्षेत्र में अपने ही कैडर के साथ यौन शोषण करना हो या उन्हें नग्न नहाने के लिए मजबूर करना हो, ये सब नक्सली करते हैं। वही नक्सली, जिन्हें अर्बन नक्सली "क्रांतिकारी" कहते हैं।


इस नैरेटिव निर्माण में कुछ मीडिया संस्थानों का योगदान सबसे घातक रहा। BBC और The Wire जैसी संस्थाओं ने हिड़मा की मौत के बाद जिस तरीके से उसकी 'मानवीयऔर "Heroic" छवि बनाने की कोशिश की, वह किसी भी जिम्मेदार पत्रकारिता का नमूना नहीं, बल्कि वैचारिक पक्षपात का नग्न प्रदर्शन था।


BBC जैसे मीडिया समूह हिड़मा के लिए लिख रहे हैं कि "बस्तर के युवाओं में उनके नाम को लेकर एक अजीब-सी दीवानगी थी", ऐसा लिखने वालों को बस्तर जाकर उन नक्सल पीड़ितों से मिलना चाहिए जिन्होंने हिड़मा के आतंक के कारण अपने परिजनों को खोया है।

हिड़मा का आतंक ऐसा था कि बस्तर के सैकड़ों परिवारों ने अपने घर में किसी ना किसी को खोया है, किसी के पिता की हत्या की गई, किसी के भाई को उसके ही सामने पेट चीरकर मारा गया, किसी के बेटे के गले को माँ के सामने ही काट दिया गया, यह है हिड़मा कि सच्चाई। क्या ऐसे हिड़मा के लिए "बस्तर के युवाओं में दीवानगी" होगी?


रायपुर-दिल्ली के एसी कमरों में बैठकर बस्तर के वास्तविक नक्सल पीड़ितों के दर्द को नहीं समझा जा सकता, लेकिन हिड़मा को हीरो बनाने के लिए जरूर मनगढ़ंत कहानियाँ बुनी जा रही हैं, जिससे मूल बस्तरवासियों का कोई लेना-देना नहीं है।


Representative Image

एक ऐसे व्यक्ति के लिए, जिसने बस्तर की जनजातीय बच्चियों को जबरन जंगल शिविरों में भर्ती किया, जिसने विकास कार्यों को रोकने के लिए बस्तर की सड़कों पर बारूदी सुरंगें बिछाईं, जिसने नागरिकों को पुलिस का मुखबिर बताकर उनकी हत्या की, ऐसे व्यक्ति के प्रतिसहानुभूतिका यह प्रयास न केवल माओवादी आतंक से पीड़ित परिवारों का अपमान है, बल्कि पत्रकारिता की साख का भी पतन है।


इन रिपोर्टों में एक बार भी झीरम घाटी हमले का वास्तविक क्रूर वर्णन नहीं था, न ही उन सैकड़ों जवानों के परिवारों का जिन्हें हिड़मा की रणनीति के कारण अपनों को खोना पड़ा। उनकी पूरी रिपोर्टिंग आतंकवादी के लिएनैरेटिव स्पेसतैयार करने की कोशिश थी।


इससे भी चिंताजनक है कुछ राजनीतिक वर्गों का व्यवहार। हिड़मा की मौत के तुरंत बाद मनीष कुंजाम जैसे कम्युनिस्ट नेता सामने आ गए, जो हिड़मा की मौत पर उसके परिवार से अधिक दुःखी दिखाई दिए। एक ऐसा माओवादी आतंकी जिसने सैकड़ों लोगों का नरसंहार किया उसकी मौत पर यदि किसी राजनीतिक पार्टी का नेता दुःखी दिखाई दे, तो उसे क्या कहा जाएगा?


वहीं सोशल मीडिया पर युवा कांग्रेस और कांग्रेस समर्थक कुछ अकाउंट्स ने जिस तरह हिड़मा की मौत पर अफसोस और सहानुभूति जताई, वह किसी भी सभ्य राजनीतिक संगठन के लिए लज्जाजनक है। यह वही हिड़मा है जिसके हाथों कांग्रेस ने अपने शीर्ष नेताओं को झीरम घाटी में खोया था, और आज उसी हत्यारे कोप्रतिरोध का प्रतीकबताने वाले लोग उसी पार्टी की राजनीति में सक्रिय हैं।


Representative Image

यह विचारधारात्मक भ्रम नहीं, बल्कि वैचारिक पतन है। यह इस बात का भी प्रमाण है कि नक्सली नैरेटिव केवल जंगलों में ही नहीं बल्कि कांग्रेस की मूल राजनीति के अंदर भी जगह बनाने की कोशिश कर रहा है, और सफल भी हो रहा है।


यह सच्चाई बार-बार दोहराई जानी चाहिए कि हिड़मा बस्तरवासियों का या जनजातियों का हितैषी नहीं था। उसने बस्तर के युवाओं को हथियार थमाकर उनके बचपन को लूटा, गांवों को खाली कराया, विकास को रोककर गरीबी को स्थायी बनाया और हर उस व्यक्ति कोराज्य का एजेंटकहकर मार दिया जिसने स्कूल, सड़क, अस्पताल या बिजली जैसी किसी सरकारी परियोजना का समर्थन किया।


जिन जनजातीय क्षेत्रों को हिड़माक्रांति का क्षेत्रकहता था, वे वास्तव में भय, विस्थापन और रक्तपात के क्षेत्र बन चुके थे। कोई भी ईमानदार आवाज़ नहीं कह सकती कि उसने जनजातियों के लिए कुछ बनाया है, उसने केवल उनसे छीनने का काम किया।


Representative Image

हिड़मा की मौत का असर CPI (Maoist) पर स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। PLGA बटालियन-1 नेतृत्वहीन हो गई है, कई कैडर आत्मसमर्पण कर रहे हैं और कई क्षेत्रों में स्थानीय ग्रामीण पहली बार यह कह पा रहे हैं कि वे भय मुक्त हैं। हिड़मा की मौत भारत के लिए राहत का क्षण है, पर यह लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है। क्योंकि हिड़मा की मौत ने ही दिखाया है कि असली खतरा जंगलों में छिपे हथियारबंद दस्ते नहीं, बल्कि शहरों में बैठे वैचारिक तस्कर हैं।


वे लोग जो ट्वीट, लेख, पर्चे, पोस्टर, किताबें और विदेशी मंचों का उपयोग करके भारत के खिलाफ विचारों की खेती करते हैं। हिड़मा का पक्ष लेने वाले लोग केवल एक आतंकवादी का समर्थन नहीं कर रहे थे; वे भारत के लोकतंत्र, उसकी संस्थाओं, उसकी सुरक्षा व्यवस्था और उसके संवैधानिक ढांचे के खिलाफ खड़े थे। वे हथियार नहीं उठाते, लेकिनविचारके नाम पर हिंसा का समर्थन करते हैं, पुलिस और सेना की कार्रवाई को बदनाम करते हैं और आतंकी संगठन कोजनतांत्रिक प्रतिरोधकी भाषा में वैधता दिलाने की कोशिश करते हैं।


Representative Image

यह लड़ाई केवल सुरक्षा बलों की नहीं है; यह लड़ाई पूरे समाज, मीडिया, राजनीति और न्याय प्रणाली की है। भारत को यह स्वीकार करना होगा कि जब तक आतंकवाद के वैचारिक पोषकों को सामाजिक और कानूनी जवाबदेही में नहीं लाया जाएगा, तब तक हिड़मा जैसे आतंकियों की विचारधारा मरने वाली नहीं है।


भारत को अपने लोकतंत्र को बचाने के लिए आतंक के पक्ष में खड़े हर व्यक्ति, हर समूह, हर वैचारिक केंद्र की पहचान करनी होगी और उन्हें स्पष्ट संदेश देना होगा कि इस देश में हिंसा का समर्थन किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं है। हिड़मा चला गया, पर उसके महिमा-मंडन की कोशिशें बताती हैं कि शत्रु जीवित है और इस बार यह जंगल में नहीं, हमारे शहरों, संस्थानों और विचार केंद्रों में छिपा है।

शुभम उपाध्याय

संपादक, स्तंभकार, टिप्पणीकार