बालासाहेब देवरस भारतीय समाज में समरसता और आत्मीय संबंधों की भावना को मजबूत करने वाले प्रेरक पुरोधाओं में शामिल थे। 11 दिसंबर 1915 को करंजा, बालाघाट में जन्मे माधव दत्तात्रेय देवरस ने बहुत छोटी उम्र में वह मार्ग चुन लिया था जिसने आगे चलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के संगठनात्मक विकास को नई ऊंचाई दी। शुरुआती दिनों में नागपुर के इतवारी मोहल्ले की पहली शाखा से जुड़कर उन्होंने अपने व्यक्तित्व की दिशा तय कर ली। डॉक्टर हेडगेवार के सान्निध्य में उन्हें वही संस्कार मिले जिन्हें आगे चलकर लाखों स्वयंसेवकों ने बालासाहेब के व्यवहार और नेतृत्व में महसूस किया।
देवरस परिवार मूल रूप से आदिलाबाद के चन्नूर गांव से जुड़ा था। यह स्थान प्राचीन समय से सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों का केंद्र रहा और महर्षि अगस्त्य की स्मृतियों से भी जुड़ा रहा। बालासाहेब नौ भाई-बहनों में आठवें नंबर पर थे और बचपन से ही तेजस्वी और कर्मठ स्वभाव के लिए पहचाने जाते थे।
बालासाहेब की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति निष्ठा बचपन से ही साफ दिखती थी। उन्होंने छठी कक्षा में पहली शाखा जॉइन की और जल्द ही अपने कई मित्रों को भी साथ ले आए। उनकी प्रेरणा से उनके छोटे भाई भाऊराव भी संघ कार्य में जुड़ गए। घर में जब उन्होंने पहली बार कहा कि RSS के मित्रों को जाति पूछे बिना खाने पर बुलाया जाएगा और उन्हें परिवार के समान सम्मान मिलेगा, तब यह कदम उस समय की कड़ी जाति व्यवस्था के खिलाफ एक साहसिक पहल थी जिसने आगे जाकर उनके सामाजिक विचारों की नींव रखी।
मॉरिस कॉलेज नागपुर में पढ़ाई के दौरान बालासाहेब पूरा समय संघ के विस्तार में लगाते थे। 1932 में उन्हें इतवारी शाखा की जिम्मेदारी मिली और जल्द ही वे मुख्य-शिक्षक बने। 1935 में B.A. और फिर LL.B. पूरा करने के बाद भी उनका मन संगठन निर्माण में ही लगा रहा। डॉक्टर हेडगेवार ने उनकी क्षमता समझते हुए उन्हें पुणे के प्रशिक्षण शिविर का मुख्य-शिक्षक बनाया। संगठन के लिए पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की तैयारी उनका मुख्य लक्ष्य था।
1937 से 1940 के दशक के शुरुआती वर्षों में उन्होंने शाखाओं के विस्तार का ऐसा कार्य किया जिसने संघ को अखिल भारतीय रूप दिया। उनकी प्रेरणा से संघ के प्रचारक पंजाब, कर्नाटक, केरल, गुजरात, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और यहां तक कि नेपाल तक पहुंचे। यह वह दौर था जब देश में सांप्रदायिक तनाव बढ़ रहा था और संघ के कार्यकर्ता बड़े पैमाने पर हिंदुओं की रक्षा में सक्रिय थे। 1947 के विदर्भ शिविर में 10,000 स्वयंसेवकों की उपस्थिति ने स्पष्ट कर दिया कि संघ नई ऊर्जा के साथ आगे बढ़ रहा है और इसके केंद्र में बालासाहेब की संगठन शक्ति काम कर रही है।
बालासाहेब ने ‘प्रभात शाखा’ की शुरुआत करके उन स्वयंसेवकों को भी जोड़ा जो शाम की शाखा में नहीं आ पाते थे। संघ की घोष परंपरा और समूह गीतों की विधा को विकसित करने का श्रेय भी उन्हें जाता है। उनकी सूझबूझ से संघ कार्यकर्ताओं में अनुशासन और एकता की भावना और मजबूत हुई।
आपातकाल के समय उन्हें जेल जाना पड़ा, पर रिहा होने के बाद भी उन्होंने कभी कटुता नहीं दिखाई। उनका संदेश स्पष्ट था कि समाज को जोड़ने के लिए बड़े दिल की जरूरत होती है। बाद के वर्षों में उन्होंने संघ नेतृत्व में स्वस्थ परंपरा स्थापित की और नए सरसंघचालक के चयन की प्रक्रिया को सरल और सार्वजनिक बनाया।
आखिरी वर्षों में स्वास्थ्य भले साथ न दे रहा था, लेकिन वे सक्रिय और मार्गदर्शक बने रहे। बालासाहेब देवरस अपने जीवन से यह साबित करते हैं कि समरसता, अनुशासन और संगठन शक्ति समाज को नई दिशा दे सकती है। उनका जन्मदिवस उन मूल्यों की याद दिलाता है जिन्हें उन्होंने जीवन भर जिया और जनमानस में उतारा।
लेख
शोमेन चंद्र