
देश के जनजातीय बाहुल्य क्षेत्रों में पिछले दो दशकों से जारी शांत लेकिन गहरा सामाजिक परिवर्तन अब नीति-निर्माताओं और सुरक्षा एजेंसियों की प्राथमिक चिंता बन चुका है।
FCRA रिकॉर्ड, NGO गतिविधियों और जमीनी अध्ययनों की पड़ताल से यह साफ़ होता है कि विदेशी फंड से संचालित रिलीजियस नेटवर्क कई क्षेत्रों में न केवल सामाजिक ढांचे को प्रभावित कर रहे हैं, बल्कि जनजातीय समुदायों की जनसांख्यिकीय पहचान भी बदल रहे हैं।

यह बदलाव किसी आकस्मिक या स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया का नतीजा नहीं, बल्कि एक सुनियोजित और बहुस्तरीय अभियान का हिस्सा है, जिसे “कन्वर्ज़न-माफिया इकोनॉमी” कहा जा रहा है।
यह इकोनॉमी किन स्रोतों से संचालित होती है, धन किन रास्तों से पहुँचता है, शेल NGOs कैसे इसका आधार बनते हैं और डिजिटल प्लेटफॉर्म इस अभियान को किस तरह नया आयाम देते हैं, इनकी पड़ताल से स्पष्ट होता है कि यह केवल धार्मिक प्रचार नहीं, बल्कि एक व्यापक अंतरराष्ट्रीय संरचना है, जिसकी जड़ें एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका तक फैली हुई हैं।

विदेशी फंडिंग का बड़ा हिस्सा कथित तौर पर सामाजिक सेवा, शिक्षा और मानवाधिकार कार्यों के नाम पर आता है, लेकिन सरकारी और स्वतंत्र अध्ययनों में लगातार यह संकेत मिला है कि जनजातीय बाहुल्य क्षेत्रों में यह सहायता प्रत्यक्ष धार्मिक परिवर्तन से नहीं, बल्कि उस वैचारिक माहौल से जुड़ी होती है, जो अंततः परिवर्तन की जमीन तैयार करता है।
चूँकि कागज़ों पर यह फंड विकास कार्यक्रमों के लिए आता है, इसलिए इसकी जांच और रोकथाम कई बार कानूनी रूप से जटिल हो जाती है। कई जनजातीय बाहुल्य जिलों में एक ही नेटवर्क से जुड़े अनेक NGOs अलग-अलग नामों से काम करते दिखाई देते हैं।

ये संस्थाएँ स्कूल चलाने, स्वास्थ्य शिविर आयोजित करने या स्वयं-सहायता समूहों को समर्थन देने जैसे कार्य करती हैं, लेकिन कई मामलों में इनके साथ रिलीजियस साहित्य, सामूहिक प्रार्थनाएँ और वैचारिक बैठकों का अनौपचारिक ढांचा भी जुड़ा रहता है।
स्थानीय प्रशासन के लिए यह पहचानना चुनौतीपूर्ण होता है कि कौन-सी गतिविधि सामाजिक सेवा है और कौन-सी धार्मिक प्रभाव का माध्यम।
पिछले दशक में डिजिटल प्रचार इस नेटवर्क का सबसे प्रभावी उपकरण बनकर उभरा है। स्मार्टफ़ोन और इंटरनेट की पहुँच ने ग्रामीण और जनजातीय युवाओं को सीधे वैश्विक धार्मिक सामग्री से जोड़ दिया है।

क्षेत्रीय भाषाओं में बनाए गए यूट्यूब उपदेश, व्हाट्सऐप फ़ॉरवर्ड और फेसबुक समूहों में साझा होने वाली “चमत्कार” आधारित कहानियाँ ग्रामीण इलाक़ों तक निरंतर पहुँचती हैं। यह प्रचार अपेक्षाकृत कम दिखाई देता है, लेकिन इसका प्रभाव लंबे समय और सामाजिक पैमाने पर महसूस होता है।
जनजातीय जनसांख्यिकी में बदलाव का असर केवल उपासना-पद्धति तक सीमित नहीं रहता। जब कोई समुदाय अपनी परंपरागत आस्था छोड़ता है, तो उसके सामूहिक अनुष्ठान, सामाजिक संबंध, निर्णय-प्रक्रिया और कभी-कभी राजनीतिक दृष्टिकोण भी बदल जाते हैं।
कई जिलों में हुए सर्वेक्षण बताते हैं कि ऐसे बदलाव एक-एक व्यक्ति में नहीं, बल्कि पूरे समूहों में दिखाई देते हैं, जिसे सामाजिक विज्ञान में “क्लस्टर डेमोग्राफिक शिफ्ट” कहा जाता है।

वैश्विक अनुभवों से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि आर्थिक असुरक्षा, प्रशासनिक कमी और विदेशी फंडिंग का संयोजन जनजातीय समुदायों में तेज़ कन्वर्ज़न का प्रमुख कारण बनता है। अफ्रीका, दक्षिण-पूर्व एशिया और लैटिन अमेरिका के कई इलाक़ों में इसी मॉडल ने सामाजिक संरचनाओं को गहराई से प्रभावित किया है। भारत के जनजातीय क्षेत्रों में दिखाई दे रहे पैटर्न इनसे अलग नहीं हैं।
भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह संविधान द्वारा प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता और जनजातीय समुदायों की सांस्कृतिक सुरक्षा, दोनों के बीच संतुलन बनाए रखे।

कई NGOs का काम वास्तविक रूप से उपयोगी भी होता है, इसलिए नीति-निर्माताओं के लिए सही और गलत के बीच स्पष्ट रेखा खींचना कठिन होता है। सुरक्षा एजेंसियाँ फंडिंग के स्रोत और डिजिटल प्रचार की प्रकृति पर निगरानी बढ़ा रही हैं, लेकिन यह प्रक्रिया संवेदनशील और कानूनी रूप से जटिल है।
कन्वर्ज़न-माफिया इकोनॉमी केवल कन्वर्ज़न का मुद्दा नहीं है। यह सांस्कृतिक निरंतरता, सामुदायिक स्थिरता और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए दीर्घकालिक प्रभाव वाला प्रश्न है।
इस नेटवर्क को समझना और उसके वित्तीय ढांचे को पारदर्शी बनाना आवश्यक है, क्योंकि जब धन का प्रवाह स्पष्ट होता है, तभी उसके इरादों को सही तरीके से समझा जा सकता है।
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