
भारत में तथाकथित माओवादी आंदोलन को लेकर बदलता भूगोल और बदलती रणनीति पिछले कुछ वर्षों में जितनी स्पष्ट हुई है, उतनी शायद कभी नहीं रही। जंगलों में लगातार दबाव, शीर्ष कमांडरों के सरेंडर और कई राज्यों में सुरक्षा बलों की निर्णायक कार्रवाइयों के बाद CPI (Maoist) अब अपने पुराने गढ़ों से आगे बढ़कर शहरों में वैचारिक, कानूनी और डिजिटल नेटवर्क को मज़बूती देने में अधिक सक्रिय दिखाई दे रहा है।
यही वह ढांचा है जिसे संगठन अपने आंतरिक दस्तावेज़ों में “यूनाइटेड फ्रंट” मॉडल कहता है, एक ऐसा बहुस्तरीय ओवरग्राउंड नेटवर्क, जो प्रत्यक्ष हिंसा से दूर रहकर माओवादी आतंक को वैचारिक और सामाजिक विस्तार देता है।
छत्तीसगढ़, झारखंड और महाराष्ट्र जैसे माओवादी प्रभाव के क्षेत्रों में पिछले एक दशक में सुरक्षा अभियानों ने बड़ी पकड़ बनाई है। वहीं पिछले दो वर्षों में तो माओवादी संगठन लगभग समाप्ति की कगार पर आ चुका है।

कई अनुभवी कैडर या तो ढेर हुए, या जंगल छोड़ने को मजबूर हुए। इस दबाव का तत्काल असर यह हुआ कि माओवादी संगठन की "पार्टी संरचना" ने अपने बचे हुए संसाधनों को शहरी इकाइयों में पुनर्संयोजित करना शुरू कर दिया है।
सुरक्षा एजेंसियों से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि शहरों में मौजूद यह नेटवर्क अब केवल सहायक संरचना नहीं, बल्कि संगठन का "स्ट्रेटेजिक सेंटर" बन चुका है। हालाँकि आरम्भ से ही देखें तो यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि माओवाद या नक्सलवाद का "स्ट्रेटेजिक सेंटर" हमेशा से "शहर और महानगर" ही रहे हैं।

देखा जाए तो लंबे समय से भर्ती, प्रचार, कानूनी सहायता, फंडिंग और सहानुभूति-निर्माण, इन सभी क्षेत्रों का संचालन मुख्य रूप से शहरी तंत्र से ही होता आ रहा है।
माओवादी दस्तावेज़ों के अनुसार यह मॉडल तीन परतों पर काम करता है, (1) फ्रंटल संगठन, (2) बुद्धिजीवी-वर्ग और अकादमिक समर्थन, और (3) कानूनी/अधिकार आधारित संस्थाएँ। इन तीनों का उद्देश्य आंदोलन को वैधता प्रदान करना और प्रत्यक्ष हिंसा से दूर रहते हुए सामाजिक आधार तैयार करना है।

फ्रंटल संगठन - ये संगठन मानवाधिकार, श्रम, पर्यावरण, जनजातीय मुद्दों या भूमि अधिकार जैसे संवेदनशील विषयों पर काम करते हैं। इनके अभियान कई बार वैचारिक झुकाव के साथ माओवादी नैरेटिव को सुदृढ़ करते हैं।
उदाहरण के रूप में देखें तो बस्तर में "मूलवासी बचाओ मंच" ने माओवादियों के पक्ष में माहौल बनाते हुए सुकमा के सिलगेर में सुरक्षा बलों के कैम्प का विरोध किया था। बीते वर्ष इस संगठन को प्रतिबंधित संगठनों की सूची में डाला गया है।
अकादमिक और बौद्धिक स्पेस - शहरों के विश्वविद्यालय, शोध संस्थान और सांस्कृतिक मंच माओवादी विचारों के प्रचार का महत्वपूर्ण माध्यम बनते हैं। चर्चाएँ, सेमिनार, रिसर्च पेपर और “विकल्पिक राजनीतिक विमर्श” के नाम पर कई बार ऐसी सामग्री प्रसारित होती है जो संगठन के वैचारिक ढांचे से मेल खाती है।
कानूनी सहायता और अधिकार आधारित नेटवर्क - माओवादी मामलों में गिरफ्तार व्यक्तियों के बचाव, सलाह और मीडिया नैरेटिव को प्रभावित करने में कानूनी नेटवर्क महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कई मामलों में यह नेटवर्क गिरफ्तारी को “राजनीतिक दमन” या “असहमति पर हमला” के रूप में पेश करता है।

उदाहरण के तौर पर देखें तो सलवा जूडुम को बंद करवाने वाला समूह और भीमा-कोरेगांव मामले में गिरफ़्तार शहरी माओवादियों के प्रति सहानुभूति का माहौल बनाने वाला समूह इसी श्रेणी में है।
डिजिटल विस्तार: विचारधारा का नया हथियार
पिछले कुछ वर्षों में माओवादी यूनाइटेड फ्रंट की गतिविधियाँ डिजिटल माध्यम पर अत्यधिक निर्भर हो गई हैं। सोशल मीडिया कैंपेन, टारगेटेड नैरेटिव निर्माण, युवा वर्ग को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर तेज़ भावनात्मक सामग्री और प्रोपेगैंडा वीडियो और वैकल्पिक इतिहास प्रस्तुत करने वाली पोस्ट।

इन सभी का उद्देश्य जनमत को प्रभावित करना और संवेदनशील मुद्दों पर लोकतंत्रित संस्था-विरोधी नैरेटिव को मजबूत करना है। डिजिटल स्पेस की अनियंत्रित प्रकृति माओवादियों को यह सुविधा देती है कि वे बिना पहचान उजागर किए संवाद, डर फैलाने या समर्थन जुटाने का काम कर सकें।
एनजीओ और फंडिंग चैनल: सिविल सोसाइटी और उग्रवाद की सीमारेखा
एक बड़ा सवाल यह उठता है कि कई एनजीओ और सामाजिक संगठन अनजाने या जानबूझकर कैसे इस नेटवर्क से प्रभावित हो जाते हैं।
विशेषज्ञों के मुताबिक कई बार वैध सामाजिक कार्य और छिपे हुए राजनीतिक एजेंडा के बीच की रेखा बेहद महीन होती है। शहरी यूनाइटेड फ्रंट मॉडल इसका लाभ उठाता है। कई बार दिखाई देने वाला काम सामाजिक न्याय के नाम पर होता है, लेकिन वास्तविकता में उसका वैचारिक प्रभाव माओवादी एजेंडा को प्रसारित करता है।
शहरों में भर्ती और वैचारिक तैयारियाँ
सुरक्षा एजेंसियों के अनुसार यूनाइटेड फ्रंट मॉडल का एक प्रमुख काम नए समर्थकों या “सिम्पैथाइजर्स” को तैयार करना है। ये व्यक्ति सीधे हिंसा में शामिल नहीं होते, परंतु इनका काम होता है सामग्री निर्माण करना, प्रचार तंत्र में शामिल होना, लॉजिस्टिक सपोर्ट देना, कानूनी सहायता देना और कभी-कभी फंडिंग जैसे क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जैसे हम देखते हैं कि कुछ माओवाद समर्थित डिजिटल मीडिया समूह "क्राउड फ़ंडिंग" की बात करते हैं।

शहरों में पढ़ने वाले छात्र, युवा शोधकर्ता, सामाजिक कार्यकर्ता या एक्टिविस्ट कई बार इस वैचारिक चक्र में फंस जाते हैं, जिसके प्रभाव को पहचानना भी मुश्किल होता है।
दरअसल भारत में माओवादियों द्वारा अपनाया गया यह शहरी मॉडल अंतरराष्ट्रीय पैटर्न से अलग नहीं है। यूरोप और लैटिन अमेरिका में भी कई उग्रवादी संगठनों ने अपने हिंसक ढांचे को बचाए रखने के लिए शहरी सामाजिक नेटवर्क, अकादमिक स्पेस और डिजिटल प्रोपेगैंडा को हथियार बनाया है। इस पद्धति का फायदा यह है कि संगठन हिंसा से दूरी दिखाते हुए समाज में अपनी पकड़ बनाए रखता है।
सुरक्षा एजेंसियों की चुनौती: खुला समाज, छिपे नेटवर्क
लोकतांत्रिक ढांचे में शहरी माओवादी नेटवर्क की पहचान करना और उस पर कार्रवाई करना अत्यंत जटिल है। एक ओर नागरिक स्वतंत्रता, सामाजिक मुद्दे और मानवाधिकार का संवैधानिक संरक्षण है, वहीं दूसरी ओर इनमें छिपा माओवादी-उग्रवादी प्रभाव।
सुरक्षा एजेंसियाँ अब पारंपरिक पुलिसिंग से आगे बढ़कर डिजिटल फॉरेंसिक, फंडिंग ट्रैकिंग, साइबर इंटेलिजेंस और अकादमिक-एनजीओ गतिविधियों की गहन समीक्षा पर काम कर रही हैं।

फिर भी इन प्रयासों में संतुलन आवश्यक है, क्योंकि एक अनुचित कार्रवाई नागरिक अधिकारों पर सवाल खड़ा कर सकती है और इसके बाद छिपे माओवादी वास्तविक कार्रवाइयों को भी इसके आड़ में बचाने का प्रयास करने लग जाते हैं।
यह स्पष्ट है कि जंगल की लड़ाई कमजोर पड़ने के साथ ही माओवादियों ने शहरों को अपनी निर्णायक जमीन बना लिया है। परंतु यह “आख़िरी मोर्चा” है या किसी बड़े बदलाव की शुरुआत, इसका जवाब अभी साफ नहीं है।
भारत के लिए चुनौती यह है कि सुरक्षा, विकास और लोकतांत्रिक संवाद, तीनों के बीच संतुलन बनाए रखते हुए इस शहरी नेटवर्क की जड़ों को सही तरीके से समझा जाए। यदि यह संतुलन बिगड़ता है, तो यूनाइटेड फ्रंट मॉडल लंबे समय तक शहरी परतों में सक्रिय रह सकता है।