छत्तीसगढ़ की धरती ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को केवल सिपाही ही नहीं दिए, बल्कि ऐसे नेतृत्व भी दिए जिन्होंने अन्याय के विरुद्ध जनशक्ति को संगठित किया। इस परंपरा का सबसे प्रखर नाम वीर नारायण सिंह है। उन्होंने 1857 के महासंग्राम से पहले ही अंग्रेजी शासन की लूट, शोषण और दमन के खिलाफ संघर्ष का शंखनाद किया। उन्होंने जनजातीय समाज, किसानों और वंचित वर्गों की पीड़ा को अपनी लड़ाई का आधार बनाया और सत्ता के अत्याचार को खुली चुनौती दी।
उन्नीसवीं सदी के मध्य में छत्तीसगढ़ भीषण अकाल की चपेट में आया। खेत सूखे, अन्नागार खाली हुए और ग्रामीण भूख से जूझते रहे। इसी समय अंग्रेजी प्रशासन और उसके सहयोगी व्यापारियों ने अनाज की जमाखोरी कर ली। बाजार में अन्न मौजूद रहा, लेकिन गरीबों की थाली खाली रही। वीर नारायण सिंह ने इस अमानवीय स्थिति को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि जनता के प्राण व्यापार से बड़े हैं। उन्होंने संगठित होकर गोदामों से अनाज निकलवाया और भूखे ग्रामीणों में बांटा। इस कदम ने अंग्रेजी शासन की नींव को हिला दिया।
अंग्रेज अधिकारियों ने इस जनहितकारी कार्य को अपराध घोषित किया। उन्होंने वीर नारायण सिंह को दबाने की साजिश रची, लेकिन वे झुके नहीं। उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना और गांव-गांव में जनजागरण किया। उन्होंने लोगों को अन्याय के खिलाफ खड़े होने का साहस दिया। उनके नेतृत्व में जनजाति और किसान एकजुट हुए। इस एकता ने अंग्रेजी सत्ता को भयभीत कर दिया। शासन ने सैनिक कार्रवाई शुरू की और संघर्ष को कुचलने का प्रयास किया।
वीर नारायण सिंह ने सीमित संसाधनों के बावजूद साहस नहीं छोड़ा। उन्होंने अपने क्षेत्र की भौगोलिक समझ का उपयोग किया और संघर्ष को आगे बढ़ाया। उन्होंने स्पष्ट संदेश दिया कि विदेशी शासन जनता की सहमति के बिना टिक नहीं सकता। उनकी गतिविधियों ने यह सिद्ध किया कि स्वतंत्रता की चेतना केवल महानगरों तक सीमित नहीं रही, बल्कि वनों, पहाड़ियों और गांवों तक फैल चुकी थी।
अंग्रेजी शासन ने अंततः उन्हें गिरफ्तार किया और कठोर दंड दिया। सत्ता ने सोचा कि एक नेता को हटाकर जनआंदोलन को समाप्त कर देगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वीर नारायण सिंह के विचार लोगों के मन में जीवित रहे। उनकी कहानी ने आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित किया। उन्होंने यह उदाहरण प्रस्तुत किया कि देशभक्ति केवल हथियार उठाने में नहीं, बल्कि भूखे को भोजन दिलाने और अन्याय के खिलाफ खड़े होने में भी प्रकट होती है।
छत्तीसगढ़ आज वीर नारायण सिंह को अपने स्वाभिमान का प्रतीक मानता है। उनके नाम पर संस्थान, योजनाएं और स्मृतियां खड़ी हैं, लेकिन सबसे बड़ी स्मृति जनता के भीतर बसती है। उनका जीवन यह सिखाता है कि सच्चा नेतृत्व जनता की पीड़ा से जन्म लेता है। उन्होंने सत्ता के सामने नतमस्तक होने के बजाय संघर्ष को चुना और इतिहास में अमिट स्थान बनाया।
वीर नारायण सिंह की विरासत आज भी राष्ट्र को प्रेरणा देती है। उनका संघर्ष हमें यह याद दिलाता है कि भारत की स्वतंत्रता की कहानी केवल 1857 से नहीं, बल्कि उससे पहले भी जनचेतना के रूप में आकार ले चुकी थी। उन्होंने छत्तीसगढ़ की मिट्टी से उठकर पूरे देश को स्वाभिमान, साहस और जनसेवा का संदेश दिया।
लेख
शोमेन चंद्र