जानिए माओवाद (नक्सलवाद/कम्युनिस्ट आतंक) के अंतिम लक्ष्य को !

10 Feb 2023 21:07:33
भाग - २ ("लाल किले पर लाल निशान")
 
 

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पिछले लेख में हमनें भारत में कम्युनिस्टों की दो धाराओं (लेनिनवाद एवं मार्क्सवाद) के विकास के विषय में जाना जिसने सुनियोजित रूप से भारत में कम्युनिस्ट विचारों के घुसपैठ को सुनिश्चित किया, रणनीतिक रूप से इन धाराओं के प्रचार प्रसार में कम्युनिस्टों ने इटालियन कम्युनिस्ट दार्शनिक अंतानियों ग्रामस्की की सांस्कृतिक मार्क्सवाद के सिद्धांत को खूब भुनाया, हालांकि भारत में उग्र कम्युनिस्ट विचारों की परिपाटी इसकी तीसरी धारा यानी माओवाद (नक्सलवाद) के विस्तार से शुरू हुई।
 
कम्युनिस्टों द्वारा भारत में माओवाद के विस्तार को वर्ष 1967 की नक्सलबाड़ी की घटना से देखा जाता रहा है, वर्ष 19767 में पश्चिम बंगाल के छोटे से गांव में क्षेत्र के ज़मीदार के विरुद्ध स्थानीय कारणों से भड़के इस सशस्त्र संघर्ष को चीन समेत भारत भर के कम्युनिस्टों ने 'स्प्रिंग थंडर' नाम दिया, इस विद्रोह से उभरे नेताओं ने भी कम्युनिस्ट विचारकों से मिली प्रशंसा को दोनों हाथों से स्वीकार, चारु मजूमदार एवं कानू सान्याल कम्युनिस्टों के नए पोस्टर बॉयज बनकर उभरे, माओवाद की विचारधारा के प्रति अपनी वफादारी दिखाने ये इसके जनक रहे माओ जेदोंग से मिलने चीन भी पहुंचे और अपने आका का आशीर्वाद लेकर वापस भारत में कथित क्रांति के खूनी खेल में लग गए।
 
हालांकि अवास्तविक सिद्धांतो से प्रेरित विचारधारा जो मूल रूप से विरोधाभासी है वो लंबे काल तक विरोध की इस मुहिम को जारी नहीं रख सकी और आंशिक सफलता के उपरांत स्प्रिंग थंडर की चमक फीकी पड़ने लगी, विचारों के मतभेद, विरोधाभास, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा एवं सबसे अधिक जन समर्थन के आभाव ने भारत के कम्युनिस्टों की अपेक्षाओं का केंद्र बने नक्सलबाड़ी विद्रोह को 70 के दशक के अंत तक चारो खाने चित कर दिया।
 

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हालांकि बावजूद इसके की यह विद्रोह अपने वृहद लक्ष्यों को प्राप्त करने में पूरी तरह असफल रहा अगले एक दशक तक पश्चिम बंगाल, अविभाजित बिहार (वर्तमान में झारखंड एवं बिहार) एवं अविभाजित आंध्रप्रदेश में नक्सलबाड़ी से शुरू हुए कथित विद्रोह के नाम पर छोटे छोटे गुरिल्ला समुहों ने सामर्थ्य अनुसार हिंसा एवं रक्तपात को बढ़ावा देना जारी रखा।
 
यह वो दौर था जब कम्युनिस्टों की सैन्य शक्ति की दृष्टि से आंध्रा में पीपुल्स वॉर ग्रुप तो वहीं अविभाजित बिहार एवं बंगाल में माओइस्ट कम्युनिस्ट सेन्टर (एमसीसी) के रूप में दो गुरिल्ला समूह तेजी से उभरे, दुर्भाग्य से इन दोनों ही समुहों के उत्थान में देश की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों भी परोक्ष रूप से उत्तरदायी रही, दोनों समुहों की कार्यशैली से यह अनुमान लगाना कठिन ना था कि इनका वृहद लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा भूमि को सशस्त्र संघर्ष के दायरे में लाना था।
 
दोनों समुहों में रणनीतिक दृष्टिकोण से जो समानताएं थी उससे भी यह समझ पाना कठिन नहीं कि इन दोनों समुहों के विस्तार में विदेशी आकाओं से निर्देश ले रहे कम्युनिस्ट नेताओं की प्रत्यक्ष भूमिका रही होगी, परिणामस्वरूप इन दोनों समुहों ने अगले दो दशकों में अपने पारंपरिक क्षेत्रों से निकलकर छत्तीसगढ़, ओड़िशा, महाराष्ट्र एवं कर्नाटक (ट्राई जंक्शन) तक में अपनी मजबूत पकड़ स्थापित कर ली।
 
अगला दशक भारत में माओवाद के विस्तार एवं इसके नवीन प्रारूप के लिए निर्णायक माना जा सकता है, दरअसल जिस स्प्रिंग थंडर के बल बूते कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी भारत में कथित क्रांति का सपना बुन रहे थे उसके धराशायी हो जाने से इस पूरे तंत्र को यह समझ आ गया था कि केवल छोटी मोटी घटनाओं को आधार बनाकर सशस्त्र संघर्ष छेड़ देने अथवा महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों पर वैचारिक पकड़ भर से सत्ता कब्जाना संभव नहीं, सत्ता के लिए इसका समायोजन बेहद आवश्यक है और यह इसके बाद ही हुआ जब कम्युनिज्म की अलग अलग धाराओं के पक्षधर रहे कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों ने अपनी स्वाभाविक मृत्यु मर रहे इस विद्रोह में जान फूंकने के लिए छोटे छोटे समुहों में आंशिक सक्रियता के साथ अपनी वृहद रणनीति में आमूलचूल परिवर्तन किया।
 
“नई रणनीति माओवाद के मूल सिद्धांतों को अपने में समेटे हुए थी जिसे मुख्यतः दो श्रेणियों में बांटा गया था, इसमें से पहली श्रेणी सैन्य शक्ति, पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) यानी कि चीन के तर्ज पर भविष्य की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के विषय मे थी, जबकि दूसरी श्रेणी रेवोल्यूशनरी पॉलिटिक्स की थी, रेवोल्यूशनरी पॉलिटिक्स के कई हिस्से थे जैसे कि सांस्कृतिक मार्क्सवाद के तहत प्रचलित धार्मिक एवं सांस्कृतिक विमर्शों को तोड़कर नई पहचान गढ़ना, इसको प्रभावी ढंग से स्थापित करने के लिए इन्फॉर्मेशन वारफेयर, एवं अराजकता के वातावरण के निर्माण के लिए आलायेन्स बनाना। उद्देश्य वृहद था इन सब के समायोजन से क्रांति का मार्ग प्रशस्त करना यानी कि "लाल किले पर लाल निशान"  ”
 
 
पहली श्रेणी के लिए दो पृथक समुहों के रूप में उभरे एमसीसी एवं पीपुल्स वॉर ग्रुप को एक साथ लाना बेहद आवश्यक था इसलिए स्वाभाविक रुप से ढेरों असमानताओं के बावजूद कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों के हस्तक्षेप से दोनों संगठनो को एक साथ लाया गया, यह विलय माओवाद के भारत में विस्तार के लिए अहम निर्णय था जिसके परिणामस्वरूप कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओइस्ट) यानी सीपीआई (एम) अस्तित्व में आई, चूंकि राजधानी में बैठे कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों द्वारा संगठनों के विलय का प्रयास पहले से जारी था तो इसमें आश्चर्य नहीं कि इन दोनों संगठनों के वर्ष 2004 में औपचारिक विलय से 4 वर्ष पूर्व ही दोनों के सशस्त्र कैडर्स, पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) के रूप में एक साथ आ चुके थे।
 
इस विलय के साथ ही (कई संदर्भो में तो इससे पूर्व ही) दूसरी श्रेणी के लिए अनेकों फ्रंटल समुहों की स्थापना की गई, यह समूह विभिन्न आयामों में गठित किये थे जिनमें मानवाधिकार, किसान एवं मजदूर समितियां, अधिकार समूह, छात्र संगठन, जनजातीय (आदिवासी) विषयों से संबंधित समूह शामिल थे, इन समूहों के माध्यम से कम्युनिस्ट तंत्र का उद्देश्य रेवोल्यूशनरी पॉलिटिक्स को बढ़ावा देना था, इस क्रम में इनफार्मेशन वारफेयर के लिए दशकों से स्थापित कम्युनिस्ट झुकाव वाले मीडिया समुहों, समाचार पत्रों, शिक्षाविदों इतिहासकारों, राष्ट्रीय/अंतरष्ट्रीय जगत के मीडिया संस्थाओं के नेटवर्क के वृहद उपयोग की योजना को स्वीकृति दी गई।
 
दूसरी श्रेणी का अंतिम भाग अलायन्स को लेकर था जिसमें धार्मिक अथवा भगौलिक आधार पर भारतीय गणराज्य के विरुद्ध अपने सुनियोजित एजेंडे को बढ़ावा दे रहे कट्टरपंथी इस्लामिक समुहों, कश्मीर एवं उत्तरपूर्व में सक्रिय आतंकी/उग्रवादी समुहों, चर्चों, ईसाई मिशनरियों, खालिस्तानियों के साथ संयुक्त मोर्चे की रणनीति तैयार की गई, यह देश के विरुद्ध खड़ी सभी शक्तियों को साथ लेकर सैन्य एवं वैचारिक रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्था को प्रत्यक्ष चुनौती देने की कवायद थी जिसके वीभत्स परिणाम आने वाले दशकों में प्रतिलिक्षित होने वाले थे।
 
 
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