दंड नीति (भाग - 2) : रणनीति का पुनर्गठन - बंदूक से विकास तक

भारत की नक्सल नीति अब केवल सुरक्षा तक सीमित नहीं रही। यह विकास और पुनर्वास की नई परिभाषा बन गई है। ऑपरेशन से लेकर आत्मसमर्पण नीति तक, सरकार की दंड नीति ने जंगलों में बंदूक की जगह भरोसे और विकास की रोशनी फैला दी है।

The Narrative World    17-Oct-2025   
Total Views |

Representative Image
उत्तर बस्तर और अबूझमाड़
, जो कभी नक्सलवाद का गढ़ माने जाते थे, अब पूरी तरह नक्सलमुक्त हो चुके हैं, जो देश के लिए एक ऐतिहासिक उपलब्धि है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने सोशल मीडिया पर कहा कि नक्सलवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई में यह महत्वपूर्ण सफलता मार्च 2026 की तय समय-सीमा से पहले हासिल हुई है।


छत्तीसगढ़ के इन क्षेत्रों, जो कभी नक्सली आतंक का पर्याय थे, से नक्सलवाद का खात्मा हो चुका है। इसके साथ ही, दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के 206 नक्सलियों, जिसमें उनका प्रमुख प्रवक्ता रूपेश भी शामिल है, ने कांकेर और माड़ डिवीजन में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय के समक्ष हथियार डालने का फैसला किया है, जो लंबे समय से सुरक्षा बलों के निशाने पर था।


Representative Image

नक्सलवाद से निपटने की कहानी केवल गोली और ऑपरेशन की नहीं है, यह भारत की प्रशासनिक दूरदृष्टि और विकास की राजनीतिक इच्छाशक्ति की भी कहानी है। एक समय था जब जंगलों में बंदूकें बोलती थीं और सड़कों तक राज्य की पहुँच नहीं थी। आज उन्हीं रास्तों पर बच्चे साइकिल से स्कूल जा रहे हैं, मोबाइल नेटवर्क पहुंचा है और सुरक्षा बलों के साथ-साथ विकास की रोशनी भी जंगलों में उतर आई है।


भारत सरकार ने 2014 के बाद नक्सलवाद को कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और विकास की साझा चुनौती के रूप में देखा। इस दृष्टिकोण ने नीति की दिशा बदल दी। अब केवलऑपरेशननहीं, बल्किमिशन मोडमें लड़ाई लड़ी जा रही है, जहाँ लक्ष्य सिर्फ़ माओवादी संगठन को खत्म करना नहीं, बल्कि उसके सामाजिक आधार को भी कमजोर करना है।


इसी सोच सेराष्ट्रीय नीति और कार्ययोजना (National Policy and Action Plan for LWE)” को 2015 में पुनर्गठित किया गया। केंद्र ने स्पष्ट किया कि नक्सल समस्या का समाधान तीन स्तंभों पर टिका है। सुरक्षा, विकास और वैचारिक प्रतिकार।


Representative Image

जनवरी 2024 में केंद्र सरकार नेऑपरेशनशुरू किया, यह नक्सलवाद के विरुद्ध अब तक की सबसे व्यापक सैन्य रणनीति थी। इसका उद्देश्य केवल माओवादियों को ढूंढकर समाप्त करना नहीं, बल्कि उनकेसुरक्षित अड्डोंको स्थायी रूप से निष्क्रिय करना था।


छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ और कर्रगुट्टा पहाड़ी जैसे दुर्गम इलाकों में जहाँ कभी शासन का नामोनिशान नहीं था, वहाँ 21 दिनों तक चले अभियान में 31 हार्डकोर माओवादी मारे गए और संगठन कीयूनिफाइड हेडक्वार्टर्सतबाह कर दी गई।


Representative Image

इस ऑपरेशन से माओवादी विवश हुए कि वे पीछे खड़े हों, अपनी संचालन क्षमता घटाएँ और लगातार पलायन करें। लेकिन इस सैन्य तीव्रता के पीछे अपेक्षाकृत नई रणनीति थी: “पहले दबाव, फिर प्रस्ताव इस कथन मेंदंड नीतिका सार निहित है कि राज्य पहले भय को समाप्त करता है, फिर विश्वास स्थापित करता है।


भारत सरकार ने यह स्पष्ट किया है कि नक्सल समस्या अब सिर्फ स्थानीय कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा मुद्दा है। इस दृष्टि से, केंद्रीय एजेंसियों, राज्य पुलिस बलों और सीआरपीएफ, कोबरा, DRG, और अन्य विशेष इकाइयों के बीच समन्वय को महत्ता दी गई।


“Security & Intelligence Domination” नामक रणनीतिक स्तंभ ने जंगलों में निगरानी, ड्रोन और क्षेत्रीय सूचना नेटवर्क को महत्व दिया। आदेशों को एकीकरण की अनुमति मिली और डिजिटल एवं ट्रैकिंग संसाधन का इस्तेमाल बढ़ाया गया।


एक पुराने सुरक्षा अधिकारी के अनुसार, अब जंगलों में केवल दबाव नहीं, घेराबंदी से गतिरोध बनाया जा रहा है। नक्सलियों को दिन-प्रतिदिन सीमित रूटों में संकुचित किया जा रहा है और पलायन की गुंजाइश घटाई जा रही है।


सुरक्षा की जीत ने विकास का रास्ता खोला, और यही भारत सरकार कीदंड नीतिकी असली रीढ़ है। छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड और महाराष्ट्र के वे इलाके, जो कभी नक्सली नक्शे मेंलाल जोनमाने जाते थे, अब प्रशासनिक नक्शे मेंविकास जोनबन रहे हैं।


प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत अब तक 11,000 किमी से अधिक सड़कें बनाई जा चुकी हैं, जिनसे सुरक्षा बलों और नागरिकों दोनों को आवागमन का रास्ता मिला। साथ ही, 5,000 से अधिक मोबाइल टावर स्थापित किए गए हैं ताकि संचार का तंत्र नक्सल क्षेत्रों के हर कोने तक पहुँचे।


Representative Image

इन इलाकों में वन धन योजना, लिवलीहुड कॉलेज, और कौशल विकास मिशन जैसे कार्यक्रमों ने युवा पीढ़ी को हथियार की जगह रोजगार की दिशा दी है। अबूझमाड़ के कुछ गाँवों में, जहाँ पहले पुलिस प्रवेश नहीं कर पाती थी, वहाँ अब महिलाएँ महुआ और चिरौंजी से स्वरोज़गार कर रही हैं।


एक स्थानीय अधिकारी का बयान इस परिवर्तन को सटीक शब्दों में समझाता है किजंगलों में अब माओवादीजन अदालतनहीं लगाते, वहाँ अब पंचायत की बैठकें होती हैं।

2024 और 2025 भारत सरकार की आत्मसमर्पण नीति के सबसे सफल वर्ष साबित हुए हैं। गृह मंत्रालय के आँकड़े बताते हैं कि 1,850 माओवादी कैडरों ने हथियार छोड़े, जिनमें कई डीवीसीएम और एरिया कमांडर स्तर के नेता थे।


“कांकेर, सुकमा, नारायणपुर और गढ़चिरौली के आत्मसमर्पण कैंपों में नक्सली कमांडर खुलेआम स्वीकार कर रहे हैं कि संगठन “अमानवीय, वैचारिक रूप से खोखला और अंदर से बिखर चुका है।””


राजू सलाम, जो कभी कांकेर की हिंसक घटनाओं का सूत्रधार था, अब पुनर्वास योजना के तहत खेती कर रहा है। सरकार ने आत्मसमर्पित माओवादियों को 50,000 रुपये की प्रोत्साहन राशि, पुनर्वास प्रशिक्षण, और सम्मानजनक जीवन की गारंटी दी है।


इन्हीं प्रयासों ने उस भय की दीवार को तोड़ा, जो दशकों से जंगल और शासन के बीच खड़ी थी। अब आत्मसमर्पणभयसे नहीं, बल्किभरोसेसे प्रेरित हो रहा है।


भूपति और रूपेश जैसे माओवादी अब स्वीकार कर रहे हैं किहिंसा से न्याय नहीं आता।उनके हालिया पत्रों में लिखा है कि अबसशस्त्र संघर्ष समाप्त कर राजनीतिक आंदोलन में लौटनेका समय है।


यह आत्मस्वीकृति किसी गोली से बड़ी है। यह उस विचारधारा की आत्महत्या है जो जनता के नाम पर जनता को ही निशाना बनाती रही। आज माओवादी संगठनों के पास न नए चेहरे हैं, न नई ऊर्जा, और न ही सामाजिक सहानुभूति। जो कभीलाल गलियाराथा, वह अब विकास का गलियारा बन चुका है।


बस्तर, जो कभी भारत के भीतरनो-गो जोनकहलाता था, आज परिवर्तन की प्रयोगशाला है। यहाँ स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति बढ़ी है, स्थानीय हाट-बाज़ार फिर से खुले हैं, और महिलाएँ आत्म-सहायता समूह चला रही हैं। सुरक्षा बलों के कैंप अब जनता से दूरी नहीं रखते, बल्कि स्थानीय उत्सवों और मेलों में भाग लेते हैं। यहीनया भरोसानक्सलवाद की सबसे बड़ी हार है।


Representative Image

केंद्र और राज्यों के बीच तालमेल नक्सल-विरोधी नीति की असली कुंजी रहा है। महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, ओडिशा और तेलंगाना जैसे राज्यों में साझा अभियानों और डेटा इंटेलिजेंस की व्यवस्था ने माओवादियों की सीमाएँ तय कर दी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने 2026 तकनक्सल-मुक्त भारतका लक्ष्य रखा है और आज यह लक्ष्य अधिक यथार्थवादी प्रतीत होता है।


नक्सलवाद के इतिहास में पहली बार राज्य और समाज की लड़ाई एक ही दिशा में है। जहाँ पहले सरकार और जनता के बीच अविश्वास था, अब साझेदारी है। आज जब केवल तीन जिले बीजापुर, सुकमा और नारायणपुर सबसे अधिक प्रभावित श्रेणी में बचे हैं, तब यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि नक्सलवाद अपने अंत के अंतिम पड़ाव पर है। भारत सरकार की "दंड नीति" अब केवल नीतिगत दस्तावेज़ नहीं, बल्कि एक जीवंत प्रमाण है।

शुभम उपाध्याय

संपादक, स्तंभकार, टिप्पणीकार