भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को निर्मित करने में जनजातीय समाज ने अभिन्न योगदान दिया है। उनकी समृद्ध विरासत, ऐतिहासिक योगदान और बहुलतावादी संस्कृति से सम्पूर्ण विश्व को एक विशिष्ट पहचान मिली है। इसी गौरवशाली परंपरा को स्मरण करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 नवंबर 2021 को भगवान बिरसा मुंडा की जयंती पर भोपाल के जम्बूरी मैदान से ‘जनजातीय गौरव दिवस’ का शुभारंभ किया था।
प्रधानमंत्री ने इस राष्ट्रीय उत्सव की शुरुआत भारत के इतिहास में जनजातीय समाज के नायक नायिकाओं के योगदान को रेखांकित करने के लिए की। इस दिन भारत के विकास में जनजातीय समाज के सांस्कृतिक अवदान, स्वतंत्रता आन्दोलन में उनके अभूतपूर्व त्याग और बलिदान का स्मरण करते हैं। यह महापर्व जन जन के मन में जनजातियों के गौरवपूर्ण इतिहास, सांस्कृतिक विरासत, और प्रकृति के साथ एकात्मकता के मूल्यों से रुबरु करवाएगा।
जनजातीय समाज सनातन काल से ही अरण्य को अपना आश्रय बनाकर सृजन के गीत संगीत गाता चला आ रहा है। वे प्रकृति के साथ इतने अभिन्न हैं कि उनकी धार्मिकता का आधार भी प्रकृति ही है। प्रकृति की पूजा करने वाला यह वनवासी समाज भारतीय हिन्दू सभ्यता एवं संस्कृति का वह अभिन्न अंग है, जिसके बिना सनातन हिन्दू संस्कृति की कल्पना नहीं कर सकते। प्राचीन काल में ऋषि महर्षि शिक्षा, चिकित्सा और अनुसंधान के केंद्र वनों में चलाते थे, तब जनजातीय बंधु ही आश्रमों की सुरक्षा से लेकर अन्न सामग्री जुटाने तक की संपूर्ण व्यवस्था संभालते थे।

इस समाज ने केवल संस्कृति की रक्षा ही नहीं की, बल्कि राष्ट्र पर संकट आते ही प्रत्येक विदेशी आक्रमण का सशस्त्र सामना भी किया। आधुनिक काल में जब शक, हूण, मुगलों की इस्लामिक तलवारें भारत को रक्तरंजित कर रही थीं, तब शिवाजी के मावला सैनिकों, राणा प्रताप के साथ भील सरदार राणा पूंजा और रानी दुर्गावती ने इन क्रूर बर्बर लुटेरों का प्रतिकार किया। उन्होंने राष्ट्र की अस्मिता को अपने जीते जी खोने नहीं दिया। उन्होंने अंग्रेज सरकार के संरक्षण में ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जाने वाले कन्वर्जन के कुचक्र के विरुद्ध भी लड़ाई लड़ी। जनजातीय वनवासी समाज ने अपने स्वत्व, स्वाभिमान और सनातनी हिन्दू जीवन मूल्यों के आलोक में सदा से अपनी रौशनी देखी है।
जनजातीय गौरव दिवस के लिए 15 नवंबर की तिथि का चयन विशेष महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह बलिदानी भगवान बिरसा मुंडा की जयंती है। बिरसा मुंडा ने अपनी निडरता, कौशल और आत्मबल से ब्रिटिश सरकार की जड़ें हिला दी थीं। उनके आह्वान पर सैकड़ों हजारों जनजातीय युवा एकत्र होते थे। उत्पीड़न के विरुद्ध आरंभ उनके आंदोलन को ‘उलगुलान’ या क्रांति कहा गया। बिरसा मुंडा ने 24 वर्ष की अल्पायु में ही बलिदान दिया। उन्होंने ईसाई मत त्यागकर पुनः जनजातीय सनातन परंपरा में वापसी की। वे गाँव गाँव जाते थे, प्रवचन करते थे, और लोगों को बुराइयों से दूर रहने तथा अपनी परंपराओं पर दृढ़ रहने का अभियान चलाते थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केवल औपचारिक उत्सव आयोजन तक सीमित नहीं रहना चाहते थे। वे इस दिन को जनजातीय समाज के उत्थान और विकास का निमित्त भी बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने ‘जन मन योजना’ को ‘विकसित भारत संकल्प यात्रा’ से जोड़ा. ‘प्रधानमंत्री जनजाति न्याय महा अभियान’ (PM JANMAN) देश के सभी राज्यों में निवासरत जनजातीय समुदायों को आत्मनिर्भर बनाना चाहता है। सरकार ने इन योजनाओं की पर्याप्त जानकारी और लाभ उठाने के लिए उचित मार्गदर्शन देने हेतु ‘विकसित भारत संकल्प यात्रा’ का आयोजन किया।
जनजातीय समाज ने भारत की लोकसंस्कृति और लोक परम्परा को पीढ़ी दर पीढ़ी बचाए रखा है। अब अनिवार्य हो चुका है कि राष्ट्र भारत अपनी आबादी के 8.6 प्रतिशत हिस्से के जनजातीय समाज को उसकी मौलिक संस्कृति के साथ गतिमान बनाए रखने के लिए कृत संकल्पित हो। जनजातीय गौरव दिवस हमें उन असंख्य ज्ञात अज्ञात वीर पूर्वजों और वीरांगना माताओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का अवसर देता है, जिन्होंने राष्ट्र व समाज के लिए अपने प्राणों की आहुति दी।
लेख
शोमेन चंद्र