बस्तर की लड़ाई: बंदूक की भाषा बोलने वालों के लिए 'शांति' सिर्फ एक रणनीति है

माओवादियों की शांति की अपीलें कितनी सच्ची? क्या यह वाकई शांति की चाहत है या फिर एक नई साजिश का आगाज?

The Narrative World    30-Apr-2025   
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छत्तीसगढ़ और तेलंगाना की सीमाओं से लगे बस्तर के घने जंगल आज़ाद भारत के सबसे निर्णायक युद्ध के साक्षी बन चुके हैं। यह केवल एक सैन्य ऑपरेशन नहीं, बल्कि एक विचारधारा के समूल विनाश का संग्राम है, जो दशकों से जंगलों में बंदूक थामे लोकतंत्र के खिलाफ जंग छेड़े हुए है। 22 अप्रैल से बीजापुर-सुकमा के दुर्गम इलाकों में एक विशाल सैन्य अभियान चल रहा है, जो माओवादी नेटवर्क की रीढ़ को तोड़ने की दिशा में निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुका है।
 
इस ऑपरेशन की गंभीरता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसमें 10,000 से अधिक जवान, CRPF, CoBRA, DRG और विभिन्न स्पेशल फोर्स की 40 से अधिक यूनिट्स शामिल हैं। हेलीकॉप्टर और ड्रोन से चौबीसों घंटे निगरानी हो रही है।
 
अब तक कई हार्डकोर माओवादी मारे जा चुके हैं, भारी मात्रा में विस्फोटक और हथियार जब्त हुए हैं, लेकिन इस पूरे अभियान का सबसे अहम पहलू यह है कि घेरा जिस क्षेत्र को डाला गया है, वहाँ माओवादी नेतृत्व के प्रमुख चेहरे — हिड़मा, देवा, विकास और दामोदर जैसे आतंकी मौजूद हैं। यह पहली बार है जब सुरक्षाबलों ने माओवादियों के सबसे गहरे गढ़ को पूरी तरह चारों ओर से घेर लिया है।
 
और यहीं से शुरू होती है माओवादियों की 'शांति' की राजनीति।
 
26 अप्रैल को माओवादी संगठन ने एक चिट्ठी जारी की, जिसमें सरकार से अपील की गई कि ऑपरेशन को तत्काल रोका जाए और बातचीत शुरू की जाए। इस पत्र में उन्होंने शांति की बातें कीं, समाधान की अपील की, और कहा कि सैन्य बल का प्रयोग स्थायी हल नहीं दे सकता। पहली नज़र में यह अपील मासूम लग सकती है, लेकिन यह उतनी ही योजनाबद्ध और खतरनाक है, जितनी जंगलों में बिछाई गई IED की बारूदी सुरंगें।
 
इस ‘शांति प्रस्ताव’ का सच माओवादियों की अपनी पुस्तिका "Strategy and Tactics of Indian Revolution" में दर्ज है। वहाँ साफ़-साफ़ लिखा है — “जब दुश्मन घेराबंदी की बड़ी मुहिम छेड़े, तो हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए युद्धविराम की बात करके दबाव को कम करना और बलों को पुनर्गठित करना।”
 
अर्थात, शांति की मांग कोई हृदय परिवर्तन नहीं है, बल्कि जंग में फँसने की स्थिति में खुद को बचाने का रणनीतिक हथियार है।
 
 
इसी तरह उनकी दूसरी गुप्त पुस्तिका "Urban Perspective Document" में निर्देश है कि जब जंगलों में दबाव बढ़े, तो शहरों में 'लोकतांत्रिक भाषा' में शांति की मांग उठाई जाए। मीडिया, मानवाधिकार संगठन, विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर और वकीलों को आगे करके सरकार पर नैतिक दबाव बनाया जाए, ताकि ऑपरेशन धीमा हो और माओवादी पुनर्गठित हो सकें।
 
और ठीक यही हम आज देख रहे हैं। दिल्ली के प्रेस क्लब से लेकर ट्विटर तक, वही जाने-पहचाने चेहरे — कुछ एनजीओ कार्यकर्ता, कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ता, कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी — एक बार फिर शांति की दुहाई देकर ऑपरेशन रुकवाने की कोशिश में जुटे हैं। PUCL, PUDR, NAPM जैसे संगठन एक स्वर में बयान जारी कर रहे हैं, जिनका तात्पर्य यही है कि “सरकार अत्याचार कर रही है, निर्दोष आदिवासी मारे जा रहे हैं।” सोशल मीडिया पर भगत सिंह छात्र एकता मंच जैसे संगठन हर माओवादी को आम नागरिक बता रहे हैं, हर मुठभेड़ को फर्जी बता रहे हैं।
 
लेकिन देश अब भोला नहीं है।
 
हमने देखा है कि 2004 में आंध्र प्रदेश में शांति वार्ता के बहाने माओवादियों ने खुद को पुनर्गठित किया। 2010 में दंतेवाड़ा में 76 जवानों की शहादत उसी ‘शांति प्रक्रिया’ के बाद हुई थी। 2021 में सिलगेर आंदोलन के पीछे से जो चेहरें निकले थे, उनमें वही नाम थे जो आज फिर "शांति" के नाम पर बंदूकधारियों के लिए कवच बनकर खड़े हैं।
इस बार फर्क यह है कि सरकार भ्रम में नहीं है। सुरक्षाबल भी जानते हैं कि यह अंतिम युद्ध है। बस्तर, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश की संयुक्त रणनीति ने माओवादियों को उनके सबसे मजबूत किले में घेर लिया है। ऑपरेशन कर्रेगट्टा अब केवल एक सैन्य कार्रवाई नहीं रह गया, यह लोकतंत्र और सशस्त्र वामपंथी विद्रोह के बीच निर्णायक युद्ध बन चुका है।
 
 
गृहमंत्री अमित शाह ने स्पष्ट रूप से कहा है कि 2026 तक भारत माओवादी आतंक को पूरी तरह समाप्त करेगा। यह सिर्फ एक सरकारी घोषणा नहीं है, यह एक राष्ट्रीय संकल्प है — कि भारत में अब सत्ता बंदूक से नहीं, संविधान से चलेगी। जंगलों में डटे हमारे जवान और शहरों में जागरूक नागरिक — दोनों इस लड़ाई के सिपाही हैं। और यह लड़ाई, शांति के नाम पर की जा रही साजिशों को पहचानने की भी है।
 
अब समय आ गया है कि हम हर उस चेहरे को बेनकाब करें जो 'शांति' के नाम पर 'आतंक' को बचाने में लगा है। यह निर्णायक लड़ाई है — बंदूक और संविधान के बीच। और बस्तर इस बार केवल लड़ेगा नहीं, जीतेगा।