संविधान की हत्या के पचास वर्ष: भारत बना कारागार (भाग - 3)

कैसे इंदिरा गांधी ने अपने बचाव के लिए संविधान की धाराएं बदलीं और लोकतंत्र को पूरी तरह कुचल दिया! पढ़िए शृंखला का तीसरा आलेख।

The Narrative World    26-Jun-2025
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26 जून की भारत की सुबह बिल्कुल अलग थी। 28 वर्ष पहले जिस स्वतंत्रता को मुश्किल से प्राप्त किया गया था, वही दूर हो गई थी। अपने ही लोगों ने भारत को फिर से परतंत्र बना दिया था।
 
हालांकि मध्यरात्रि में घोषित आपातकाल का समाचार अभी पूरे देश में फैला नहीं था।
 
अनेक स्थानों के समाचार पत्र प्रकाशित हो गए थे, किंतु उनमें आपातकाल का समाचार नहीं था। कुछ अपवाद भी थे।
 
दिल्ली, चंडीगढ़ और जलंधर के अधिकतर समाचार पत्र उस दिन छप नहीं सके। कारण था, उनकी बिजली काट दी गई थी।
 
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चंडीगढ़ के 'ट्रिब्यून' के कार्यालय में पुलिस घुस गई और चलती हुई प्रिंटिंग प्रेस बंद कर दी।
 
'मदरलैंड' के कार्यालय को पुलिस ने सील किया और संपादक आर. मलकानी को गिरफ्तार किया।
 
दोपहर/शाम को कुछ समाचार पत्रों ने सप्लीमेंट निकाले। पर अनेक स्थानों पर वे जप्त किए गए।
 
प्रेस सेंसरशिप लग गई थी। अब समाचार पत्र या साप्ताहिक/मासिक पत्रिकाओं में एक भी शब्द सरकारी अधिकारियों की अनुमति के बिना छप नहीं सकता था।
 
जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संविधान सभा की बैठकों में बाबासाहब अंबेडकर जी ने जोर-शोर से उठाया था, उसका कांग्रेस की सरकार ने गला घोट दिया।
 
इंदिरा जी का गुस्सा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर था। उन्हें लगता था कि यह संघ के स्वयंसेवक ही गुजरात और बिहार जैसे आंदोलन खड़े कर रहे हैं।
 
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इसलिए पूरे देश में आदेश थे, संघ के पदाधिकारियों और प्रचारकों को पकड़ने के।
 
तब तक संघ पर प्रतिबंध नहीं लगा था। वह 4 जुलाई को लगा। किंतु 26 जून को जब संघ के सरसंघचालक बालासाहब देवरस अपने पूर्व निर्धारित प्रवास पर जाने के लिए नागपुर स्टेशन पर पहुंचे, तो उन्हें गिरफ्तार कर येरवडा (पुणे) जेल में पहुंचाया गया।
 
अटल बिहारी वाजपेई और लालकृष्ण आडवाणी को बेंगलुरु में गिरफ्तार करके वहीं की जेल में रखा गया।
 
किंतु फिर भी संघ के अनेक प्रचारक और कार्यकर्ता भूमिगत हो गए।
 
नानाजी देशमुख को गिरफ्तार करने के लिए इंदिरा जी का विशेष आग्रह था। किंतु वह पुलिस के आने से पहले ही चकमा देकर निकल गए।
 
सरकार्यवाह माधवराव मुळे भी भूमिगत हो गए। जॉर्ज फर्नांडीज, सुब्रमण्यम स्वामी, रविंद्र वर्मा आदि भी पुलिस के हाथों नहीं लगे।
 
लगभग 45,000 से 50,000 संघ के स्वयंसेवक और कार्यकर्ता प्रारंभ के दिनों में गिरफ्तार हुए। बाद में यह आंकड़ा बढ़ता गया।
 
अनेक स्थानों पर पुलिस ने जुल्म ढाया। जबरदस्त अत्याचार किए। कोई कार्यकर्ता भूमिगत हुआ, तो उसके परिवार वालों को डराया, धमकाया, जेल में बंद किया।
 
पुलिस को गिरफ्तार करने के लिए किसी आरोप की, कागजात की या वारंट की आवश्यकता ही नहीं थी।
 
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'मिसा' (MISA - Maintenance of Internal Security Act) पर्याप्त था।
 
इस कानून के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को बिना कोई आरोप या वारंट के न्यायालय में पेश न करते हुए 18 महीने जेल में बंद रखा जा सकता था।
 
एक वर्ष पहले जब यह कानून इंदिरा जी ने लोकसभा, राज्यसभा में पारित करवाया था, तो दोनो सदनों को आश्वस्त किया था कि इस कानून का उपयोग स्मगलर्स और कालाबाजारियों के विरोध में किया जाएगा।
 
किंतु प्रत्यक्ष में क्या हुआ..?
 
हजारों-हजारों सामाजिक कार्यकर्ताओं को, जननेताओं को, राष्ट्रभक्तों को मिसा के अंतर्गत बंद कर दिया गया। उन दिनों स्थिति ऐसी थी-
 
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सारा देश हुकुमशहा की चंगुल में आ गया था।
 
28 जून को ही विद्याचरण शुक्ल सूचना प्रसारण मंत्री बनाए गए। उन्होंने संजय गांधी को आश्वस्त किया कि 'जो आई के गुजराल न कर सके, वह मैं करके दिखाऊंगा। मैं प्रेस वालों की अकड़ उतारकर उन्हें ठिकाने लगाऊंगा'।
 
और उन्होंने किया भी वैसे ही। पंजाब केसरी के संपादक जगत नारायण, इंडियन एक्सप्रेस के अरुण शौरी, कुलदीप नैयर जैसे वरिष्ठ पत्रकारों को गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया। पांचजन्य उन दिनों लखनऊ से प्रकाशित होता था। उसका प्रकाशन भी बंद कर दिया गया।
 
अनेक पत्रकारों को मिसा के अंतर्गत बंद किया गया। संघ के मुखपत्र कहे जाने वाले नागपुर के 'तरुण भारत' दैनिक में संपादक, सह-संपादक, व्यवस्थापक, विज्ञापन प्रमुख सभी जेल के अंदर थे।
 
लेकिन अभी भी इंदिरा गांधी आश्वस्त नहीं थीं। उनके चुनाव का केस सुप्रीम कोर्ट में था। यदि वहां भी इलाहाबाद हाईकोर्ट जैसा निर्णय आया, तो बहुत बड़ी गड़बड़ होगी।
 
इस स्थिति में क्या किया जाए..? इंदिरा गांधी ने सोचा, 'इस समस्या को जड़ से ही समाप्त कर देते हैं। संविधान को ही बदल देते हैं। यदि संविधान में लिख देंगे कि प्रधानमंत्री पर कभी भी, किसी भी परिस्थिति में मुकदमा नहीं हो सकता, तो सारी झंझट ही समाप्त हो जाएगी'।
 
 
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बस, संजय गांधी, बंसीलाल, ओम मेहता और अन्य दरबारी मंत्री लग गए इस काम में।
 
आनन-फानन में संसद का सत्र बुलाया गया। 4 अगस्त को संसद में 'चुनाव सुधार अधिनियम बिल' पेश किया गया, जो संविधान की प्रमुख धाराओं को ही बदल रहा था।
 
यह 39वां संविधान संशोधन था। इसमें उन सारे मुद्दों को लिया गया, जिनके कारण इंदिरा जी का चुनाव रद्द हो रहा था। यह प्रस्ताव 5 अगस्त को लोकसभा में पारित हुआ। पर इसमें एक समस्या आई।
 
इस पारित प्रस्ताव में कहा गया कि 'भ्रष्टाचार के कारण यदि चुनाव रद्द हो रहा है, तो उम्मीदवार राष्ट्रपति को आवाहन कर सकता है। राष्ट्रपति, चुनाव आयुक्त की सलाह से निर्णय दे सकते हैं'।
 
यह भी गड़बड़ ही था। इंदिरा जी को तो पूरी क्लीन चिट चाहिए थी।
 
इसलिए तुरंत 40वां संविधान संशोधन प्रस्तुत किया गया। इसमें प्रधानमंत्री के चुनाव संबंधी विवाद को न्यायालय के बाहर रखा गया।
 
7 अगस्त को यह 40वां संशोधन लोकसभा में आया। ऐसे किसी प्रस्ताव के लिए जो कम-से-कम समय दिया जाता है, वह भी नहीं दिया गया।
 
मात्र ढाई घंटे में यह महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित कराया गया। लोकसभा में विपक्ष बचा ही कहां था..?
 
दूसरे दिन, 8 अगस्त को, यही संशोधन राज्यसभा ने मात्र 1 घंटे में पारित किया।
 
अब इसे कानूनी जामा पहनाने के लिए दो तिहाई राज्यों की विधानसभाओं ने इसे पारित करना आवश्यक था।
 
कोई बात नहीं...
 
दो को छोड़कर बाकी सारी विधानसभाओं में कांग्रेस बहुमत में थी।
 
दूसरे दिन, 9 अगस्त को आवश्यक विधानसभाओं ने इस संशोधन को पारित किया।
 
 
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10 अगस्त को राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर हुए और इंदिरा गांधी के संरक्षण का यह कानून बन गया।
 
इस संविधान संशोधन के लिए इतनी जल्दी क्यों की गई?
 
कारण, 11 अगस्त 1975 को इंदिरा गांधी के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी थी।
संविधान पर, कांग्रेस ने इतने निर्ममता से किए गए बलात्कार को देखकर, स्वर्ग में संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर जी की आत्मा निश्चित रूप से कांप उठी होगी..! (क्रमश:)
 
लेख
प्रशांत पोळ
लेखक, चिंतक, विचारक