ग्राउंड रिपोर्ट : सलवा जुडूम पर प्रतिबंध का बचाव करने वाले न्यायाधीशों को बस्तर की पुकार — जज साहब, कभी हमारी पीड़ा भी देखिए

बस्तर के नक्सल प्रभावित इलाकों से एक दर्दनाक पुकार, यह खुला पत्र उन न्यायाधीशों के नाम है जिन्होंने सलवा जुडूम पर प्रतिबंध का समर्थन किया। ग्रामीण बताते हैं कि प्रतिबंध के बाद कैसे स्कूल जले, सड़कें टूटीं, दवाई और राशन नहीं पहुँचे, और पहुँचा सिर्फ बारूद और आतंक। सवाल है। क्या न्याय के मंदिर से कभी उनकी आवाज़ सुनी जाएगी?

The Narrative World    26-Aug-2025   
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कल मैंने एक खबर पढ़ी, जिसमें लिखा था कि 'कुछ पूर्व न्यायाधीशों ने जस्टिस बी सुरदर्शन रेड्डी के सलवा जुडूम से संबंधित फैसलों का बचाव करते हुए एक पत्र लिखा है', इस पत्र में इन पूर्व न्यायाधीशों ने सलवा जुडूम पर प्रतिबंध के फैसले का समर्थन भी किया।


एक पत्रकार ने नाते मुझे इस विषय पर रिपोर्ट बनाने में दिलचस्पी हुई। हाल ही में मैंने बस्तर के एर्राबोर, दोरनापाल, मनिकोंटा जैसे क्षेत्रों का दौरा किया था, जहां के कई नक्सल पीड़ित मुझे मिले थे। ये वो नक्सल पीड़ित थे, जिन्हें जुडूम से जुड़े होने के तथाकथित आरोप के कारण नक्सलियों ने अपनी हिंसा का शिकार बनाया था।


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अब न्यायाधीशों के पत्र की चर्चा करते हुए मैंने फिर कुछ नक्सल पीड़ितों से बात की, तब उन्होंने काफी दुःख और आक्रोश में अपनी बात बताई। उनकी ही बातों को एक पत्र की तरह मैंने लिखा है, जो वो कहना चाह रहे हैं, ठीक वैसा ही। इस चर्चा में बात करने वाले नक्सल पीड़ित सुरेश, लोमेश राम, बिंदेश्वरी और मनीष (सभी परिवर्तित नाम) समेत क़रीब पंद्रह नक्सल पीड़ित थे, जो सुकमा, नारायणपुर, बीजापुर, कांकेर और बस्तर के निवासी हैं।


यह पत्रकार के तौर पर मेरी सिर्फ़ एक रिपोर्ट ही नहीं, बल्कि उन नक्सल पीड़ितों की आवाज को मुख्यधारा तक लाने का प्रयास है, जिसे कोई मीडिया सुनना नहीं चाहती। पढ़िए नक्सल पीड़ितों की बात।


माननीय जज साहब, हमने आपका वह पत्र पढ़ा जिसमें आपने लिखा कि सलवा जुडूम पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला नक्सलवाद या उसकी विचारधारा का समर्थन नहीं करता और इसकी आलोचना करना न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमला है।


आपकी बात सुनकर मुझे आक्रोश भी हुआ और दर्द भी। आक्रोश इसलिए, क्योंकि आप जिस फैसले को इतना अच्छा और निष्पक्ष बताकर उसकी रक्षा कर रहे हैं, उसी फैसले ने हमारी जिंदगी को नर्क बना दिया। और दर्द इसलिए, क्योंकि इस पत्र को लिखते वक्त भी आपके दिल में हमारे लिए कोई जगह नहीं थी, सिर्फ अपने कोर्ट और अपने सम्मान के लिए चिंता थी।


हम आपसे पूछना चाहते हैं कि क्या आपने कभी बस्तर आकर देखा है कि सलवा जुडूम के खत्म होने के बाद हमारी क्या हालत हुई? आपने यह क्यों नहीं लिखा कि उस फैसले के बाद गांवों के स्कूल जला दिए गए, सड़कों को उड़ा दिया गया, राशन और दवाई की गाड़ियां पहुंचनी बंद हो गईं, और हमारे गांवों तक कभी बिजली और पानी की उम्मीद भी खत्म हो गई? आपने क्यों नहीं लिखा कि हमें सिर्फ बंदूक, बारूद और मौत मिली?


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आप कहते हैं कि अदालत का फैसला नक्सलवाद का समर्थन नहीं करता। कागज पर शायद ऐसा हो, लेकिन जमीन पर सच्चाई उलटी है। आपके फैसले ने नक्सलियों को सांसें दीं और हमें मौतें। हमारे बच्चों की पढ़ाई छिन गई, खेत उजड़ गए और हमारे गांव खाली हो गए। आप कहते हैं कि किसी को सुप्रीम कोर्ट के फैसले की गलत व्याख्या नहीं करनी चाहिए। लेकिन क्या यह गलत व्याख्या है, या हमारी जीती-जागती सच्चाई?


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सलवा जुडूम खत्म होने के बाद हमने अपने ही लोगों को नक्सलियों के बंदूकों से मरते देखा। हमने बच्चों को आईईडी में उड़ते देखा। हमने अपने भाइयों को अपहरण होते देखा। किसी का पिता मारा गया, किसी का बेटा, किसी की मां, किसी की बहन, किसी की बेटी। हमारे गांवों में हर घर ने एक लाश उठाई। लेकिन आप सब न्यायाधीशों ने कभी हमारी चीखें नहीं सुनीं।


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हम आपसे पूछना चाहते हैं कि क्या आपमें से कोई कभी जगरगुंडा आया? क्या आपने दोरनापाल के उन गांवों को देखा जहां आईईडी से अपाहिज हुए लोग अपनी जिंदगी घसीट रहे हैं? क्या आप एर्राबोर के उन अनाथ बच्चों से मिले जिनके माता-पिता को नक्सलियों ने मार डाला? क्या आप मनिकोंटा और अंतागढ़ की उन विधवाओं से मिले जिनकी दुनिया आपके फैसले के बाद उजड़ गई?


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आप कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की पूर्वाग्रहपूर्ण व्याख्या से न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर आंच आती है। लेकिन हमें बताइए कि हमारी स्वतंत्रता का क्या? क्या हमारे पास स्वतंत्रता है कि हम अपने बच्चों को सुरक्षित स्कूल भेज सकें? क्या हमारे पास स्वतंत्रता है कि हम खेत में बिना डर के काम कर सकें? क्या हमारे पास स्वतंत्रता है कि रात को चैन की नींद सो सकें? हमारी स्वतंत्रता तो उसी दिन छिन गई थी जब जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी जैसे जज ने सलवा जुडूम को बंद कर दिया।


आपने यह भी कहा है कि किसी भी उम्मीदवार की विचारधारा की आलोचना से बचना चाहिए। लेकिन क्या हमारी जानें इसलिए सस्ती थीं कि उन्हें वैचारिक लड़ाई का शिकार बना दिया गया?


जज साहब, हम छोटे लोग हैं, गरीब हैं, गाँव में रहते हैं। हमारे पास आपके जैसे मंच नहीं हैं। हमारे पास सिर्फ हमारी पीड़ा है। लेकिन हम यह ज़रूर पूछेंगे कि जब सलवा जुडूम खत्म हुआ और नक्सलवाद ने हमें फिर से जकड़ लिया, तब आप कहां थे? आपने कभी हमारी आवाज सुनी? आपने कभी हमारे गांवों तक आने की कोशिश की? आपने कभी यह समझा कि आपके फैसले के बाद हमारे साथ क्या हुआ?



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आप कहते हैं कि कोर्ट की गरिमा बचानी चाहिए। हम कहते हैं कि इंसान की गरिमा बचानी चाहिए। अगर कोर्ट के फैसले से नक्सली मजबूत हुए और हम कमजोर हुए, तो यह आलोचना नहीं, हमारी सच्चाई है। अगर आपके पत्र में हमारे लिए एक शब्द नहीं है, तो आपकी गरिमा हमारे लिए खोखली है।


इतिहास आप सबके नाम को बड़े सम्मान से लिखेगा, लेकिन बस्तर की मिट्टी आपको कभी माफ नहीं करेगी। हम रोज़ यह महसूस करते हैं कि अगर सलवा जुडूम चलता रहता, तो नक्सलवाद शायद खत्म हो चुका होता और हम आज हमारे परिवार के लोग जिंदा होते।


तो, साहब, अगली बार जब आप सलवा जुड़ुम और बस्तर को लेकर कुछ कहें, तो उसमें अपनी गरिमा बचाने की चिंता से पहले, हमारे खून, हमारे आंसू और हमारी बर्बादी को भी याद कीजिएगा। क्योंकि असली न्याय वही है, जिसमें जनता की आवाज सुनी जाए ना कि सिर्फ किताबों की धूल झाड़ी जाए।

लेख

शुभम उपाध्याय 

सम्पादक, द नैरेटिव

शुभम उपाध्याय

संपादक, स्तंभकार, टिप्पणीकार