6 अगस्त 1999 का दिन त्रिपुरा के धलाई जिले के जंगलों में रहने वालों के लिए कभी न भूलने वाला बन गया। इसी दिन चार आरएसएस प्रचारकों - श्यामल कांति सेनगुप्ता, दिनेनानंदनाथ डे, सुधामय दत्ता और शुभंकर चक्रवर्ती - को वनवासी कल्याण आश्रम से अगवा कर नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (एनएलएफटी) के आतंकियों ने बेरहमी से मार डाला। उनका अपराध सिर्फ इतना था कि वे जनजाति गांवों में शिक्षा, सेवा और संस्कार का काम कर रहे थे।
इन प्रचारकों का लक्ष्य था जनजातियों को आत्मनिर्भर बनाना और भारतीय संस्कृति से जोड़ना। लेकिन यह काम ईसाई कट्टरपंथी आतंकी गुटों को रास नहीं आया। इस जघन्य हत्याकांड के पीछे था एनएलएफटी का खूंखार आतंकवादी जोशुआ देबबर्मा, जिसे लोग बर्नाबास बोरोक और जोगेन्द्र देबबर्मा के नाम से भी जानते हैं। वह खुद को "बुबाग्रा" यानी राजा कहता था और दावा करता था कि उसे सीधे यीशु मसीह से आदेश मिलते हैं, हिंदुओं पर हमला करने और जनजातियों का जबरन कन्वर्जन कराने के लिए।
जोशुआ का मकसद साफ था... त्रिपुरा में ईसाई शासन लागू करना, हिंदू संस्कृति को मिटाना और जबरन कन्वर्जन कराना। वह महिलाओं को चूड़ी, सिंदूर, बिंदी लगाने से रोकता था, भजन गाने को पाप बताता था, और देवी-देवताओं की पूजा पर पाबंदी लगाता था।
6 अगस्त को इन चार प्रचारकों को कंचनछड़ा स्थित आश्रम से अगवा किया गया। एनएलएफटी ने दो करोड़ रुपये की फिरौती मांगी। बाद में इंटेलिजेंस रिपोर्ट से पता चला कि चारों को बांग्लादेश सीमा पार ले जाया गया, जिससे बचाव की सारी कोशिशें नाकाम हो गईं।
यह हमला अकेला नहीं था। 2000 में जनजाति हिंदू नेता शांतिकाली की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई। फिर मकर संक्रांति के दिन सिंगिचेर्रा बाजार में पूजा कर रहे लोगों पर गोलियां बरसाई गईं, जिसमें 16 की मौत हो गई।
इन हमलों में सिर्फ आतंकी नहीं, कुछ चर्च से जुड़े लोग भी शामिल थे। 2000 में नोआपाड़ा बैपटिस्ट चर्च के नागमनलाल हलाम को विस्फोटकों के साथ पकड़ा गया। 2003 में एक अन्य चर्च नेता को जेलटिन, सल्फर और पोटैशियम के साथ पकड़ा गया, जिनका इस्तेमाल बम बनाने में होता है।
एक गुप्त रिपोर्ट के मुताबिक, 1997 में बांग्लादेश के सिलहट में चर्च और आईएसआई के बीच बैठक हुई थी, जिसमें एनएलएफटी, एनएससीएन, उल्फा और पीएलए जैसे गुट भी शामिल थे। इन सबका मकसद था भारत विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देना।
त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार ने भी माना था कि कुछ चर्च अलगाववादी गतिविधियों में शामिल रहे हैं। यहां तक कि एनएलएफटी के अपने गुट ने 2008 में माना कि जोशुआ की हिंदू विरोधी नीतियों से उनके ही कार्यकर्ता नाराज थे।
चारों आरएसएस प्रचारक जनजातियों के बीच सेवा कार्य करते हुए बलिदान हो गए। न तो उनकी कुर्बानी का जिक्र किताबों में होता है, न ही कहीं उनकी याद में स्मारक है। लेकिन उनका बलिदान हमें यह सिखाता है कि जब धर्म को हथियार बनाया जाता है और समाज चुप रहता है, तो नफरत और हिंसा पैर पसार लेती है।
लेख
शोमेन चंद्र
उपसंपादक, द नैरेटिव