छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में शनिवार को एक बड़ा घटनाक्रम सामने आया, जब 1 करोड़ 18 लाख रुपये के इनामी समेत कुल 23 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण कर समाज की मुख्यधारा में लौटने का फैसला किया। इनमें 9 महिला नक्सली और तीन नक्सली दंपति भी शामिल हैं।
नक्सल प्रभावित इलाकों में यह आत्मसमर्पण सिर्फ सुरक्षा बलों की रणनीति की जीत नहीं है, बल्कि इससे एक बात और साफ हो गई है कि नक्सलवाद की विचारधारा खोखली और असफल हो चुकी है।
इन सभी ने छत्तीसगढ़ शासन की "नक्सलवादी आत्मसमर्पण एवं पुनर्वास नीति-2025" और ‘नियद नेल्ला नार’ योजना से प्रभावित होकर हथियार छोड़े।
लगातार अंदरूनी इलाकों में नए पुलिस कैंप खुलने, सुरक्षा बलों के प्रभाव और स्थानीय जनता के बीच नक्सलियों के अत्याचार के खिलाफ बढ़ते आक्रोश ने उन्हें सोचने पर मजबूर किया।
नक्सलवाद से मोहभंग: एक खोखली सोच का अंत
सालों से जंगलों में हिंसा का खेल खेलने वाले इन नक्सलियों ने अब खुद स्वीकार किया है कि उनके संघर्ष का कोई औचित्य नहीं बचा है। नक्सली संगठन अब सिर्फ अत्याचार, शोषण और भेदभाव का पर्याय बनकर रह गए हैं। बाहरी नक्सली नेताओं द्वारा स्थानीय युवाओं का शोषण और ग्रामीण आदिवासियों पर बढ़ती हिंसा ने खुद उनके भीतर असंतोष पैदा कर दिया।
आत्मसमर्पण करने वालों में PLGA बटालियन के 8 हार्डकोर नक्सली, DVCM (डिवीजनल कमेटी मेंबर) 1, PPCM (प्लाटून पार्टी कमांडर मेंबर) 6, ACM (एरिया कमांडर मेंबर) 4 और 12 अन्य नक्सली कार्यकर्ता शामिल हैं। सबसे बड़ा नाम है लोकेश उर्फ पोड़ियाम भीमा का, जिस पर 8 लाख का इनाम था और जो कई बड़ी घटनाओं में शामिल रहा है, जिनमें कलेक्टर का अपहरण, बुर्कापाल हमला, मिनपा मुठभेड़ और कई पुलिस दलों पर घात लगाकर हमले शामिल हैं।
किसने निभाई अहम भूमिका?
इस आत्मसमर्पण को संभव बनाने में जिला बल, डीआरजी, CRPF की 227, 204, 165 और कोबरा 208 बटालियन, RFT सुकमा-जगदलपुर, व अन्य खुफिया एजेंसियों की प्रमुख भूमिका रही।
पुलिस अधीक्षक कार्यालय, सुकमा में डीआईजी सीआरपीएफ रेंज सुकमा आनंद सिंह राजपुरोहित, डीआईजी सीआरपीएफ रेंज जगदलपुर सैय्यद मोहम्मद हबीब असगर, एसपी किरण चव्हाण और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के सामने सभी नक्सलियों ने बिना हथियार के आत्मसमर्पण किया। इन्हें शासन की नीति के तहत 50-50 हजार रुपये की प्रोत्साहन राशि और पुनर्वास की सुविधाएं दी जाएंगी।
हिंसा नहीं, अब विकास की राह पर बस्तर
इन आत्मसमर्पित नक्सलियों की कहानियां यह बताने के लिए काफी हैं कि अब नक्सलवाद सिर्फ भ्रम फैलाने वाला आंदोलन बनकर रह गया है। कभी आदिवासियों के अधिकारों की बात करने वाला यह संगठन अब उन्हीं पर अत्याचार कर रहा है। यही वजह है कि सुकमा जैसे बेहद संवेदनशील जिले में भी लोग अब इस विचारधारा से दूरी बना रहे हैं।
वास्तव में यह आत्मसमर्पण सिर्फ एक कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक वैचारिक पराजय है। नक्सलवाद अब किसी क्रांति का प्रतीक नहीं बल्कि आतंक, असुरक्षा और अन्याय का नाम बन चुका है। यह तथ्य इस बात से भी स्पष्ट होता है कि जिन लोगों ने संगठन की रीढ़ माने जाने वाले PLGA बटालियन में रहकर काम किया, उन्होंने भी इसे छोड़ने का निर्णय लिया।
नक्सलवाद का अंत अब दूर नहीं
छत्तीसगढ़ सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति, सुरक्षा बलों की रणनीति, नई पुनर्वास नीति और स्थानीय जनता का समर्थन अब यह साबित कर रहा है कि नक्सलवाद की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। जो लोग कल तक बंदूक को बदलाव का रास्ता मानते थे, आज उन्हीं के हाथ में अब तिरंगा है।
हिंसा का रास्ता छोड़ चुके ये पूर्व नक्सली अब समाज के साथ मिलकर विकास की ओर बढ़ना चाहते हैं। यह एक नए बस्तर की शुरुआत है, जहां बंदूक की नहीं, कलम की ताकत होगी। जहां जंगलों में गोलियों की गूंज नहीं, बच्चों की हँसी गूंजेगी।
यह आत्मसमर्पण सिर्फ सुकमा की नहीं, पूरे देश के लिए एक संदेश है: नक्सली विचारधारा अब न घर की रही, न घाट की।
लेख
शोमेन चंद्र
तिल्दा, छत्तीसगढ़