स्वामी लक्ष्मणानंद बलिदान दिवस: जनजातियों की शिक्षा और स्वाभिमान के लिए जीवन अर्पित करने वाले संन्यासी

शिक्षा, आत्मनिर्भरता और संस्कृति की रक्षा के लिए समर्पित रहे स्वामी लक्ष्मणानंद, जिनका बलिदान आज भी जनमानस को प्रेरित करता है।

The Narrative World    23-Aug-2025
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23 अगस्त 2008, जन्माष्टमी की रात… ओडिशा के कंधमाल जिले में सनातन संस्कृति और जनजाति समाज के उत्थान के लिए काम करने वाले महान संत स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की नृशंस हत्या कर दी गई। आज उनके बलिदान को 17 साल पूरे हो चुके हैं, लेकिन उनका संघर्ष और संदेश आज भी जनमानस को प्रेरित कर रहा है।
 
स्वामी लक्ष्मणानंद हिमालय की साधना छोड़कर गरीबों और जनजातियों के उत्थान के लिए कंधमाल आए थे। 1969 में उन्होंने चकापाड़ा गांव में एक संस्कृत विद्यालय की स्थापना की। इस स्कूल से निकलने वाले विद्यार्थी आज शिक्षक, प्रशासनिक अधिकारी और विद्वान के रूप में समाज की सेवा कर रहे हैं। स्वामीजी का मानना था कि शिक्षा ही असली सशक्तिकरण है और संस्कृत जैसी विद्या किसी जाति या वर्ग की बपौती नहीं है।
 
1988 में उन्होंने जलेसपाटा में ‘शंकराचार्य कन्याश्रम’ की स्थापना की। यहां आज भी 300 से अधिक जनजाति बालिकाएं शिक्षा और संस्कार प्राप्त कर रही हैं। स्वामीजी हमेशा कहते थे कि बेटियां ईश्वर का उपहार हैं और उन्हें किसी भी तरह से वंचित नहीं किया जा सकता।
 
 
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स्वामी लक्ष्मणानंद केवल शिक्षा ही नहीं, बल्कि कृषि और आत्मनिर्भरता पर भी जोर देते थे। उन्होंने जनजातियों को जंगल पर निर्भर रहने के बजाय खेती को आजीविका का साधन बनाने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने पहाड़ों से निकलने वाली धाराओं को गांवों तक मोड़कर सिंचाई की व्यवस्था की। यही कारण है कि आज कंधमाल का हल्दी और जैविक उत्पाद देश-दुनिया में प्रसिद्ध हैं।
 
उनका जीवन जनजाति संस्कृति और परंपराओं की रक्षा के लिए समर्पित था। उन्होंने जनजाति समाज को जगन्नाथ परंपरा से जोड़ा और रथ यात्राएं आयोजित कर उन्हें अपनी जड़ों से जोड़ने का कार्य किया। वे विदेशी मिशनरियों द्वारा प्रलोभन और छल से किए जाने वाले धर्मांतरण के खिलाफ एक चट्टान की तरह खड़े रहे।
 
स्वामीजी का कहना था कि कन्वर्जन जनजाति समाज को भारत की संस्कृति से काटने की साजिश है। उन्होंने धरनी पेनु (मां धरती देवी) जैसे जनजाति देवताओं की पूजा को पुनर्जीवित किया और जनजातीय जीवन को भारतीय संस्कृति से जोड़ने का कार्य किया।
 
 
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उनके काम से घबराकर कई बार उनकी हत्या के प्रयास हुए। 2007 में उन्होंने खुद मीडिया के सामने साजिशों का जिक्र किया था। 2008 में जन्माष्टमी की रात को नक्सलियों ने उन्हें जलेसपाटा आश्रम में निर्ममता से मार डाला। बाद में यह साफ हुआ कि नक्सलियों का इस्तेमाल ठेके के हत्यारे की तरह किया गया था।
लेकिन उनकी हत्या से उनका मिशन रुका नहीं। आज भी जलेसपाटा में कन्याश्रम चल रहा है, वेद विद्यालय स्थापित है और स्थानीय लोग उनके कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं।
 
स्वामी लक्ष्मणानंद का जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्ची सेवा व्यक्तिगत मोक्ष से बड़ी होती है। उन्होंने अपना पूरा जीवन जनजाति समाज को शिक्षित, आत्मनिर्भर और कन्वर्जन से सुरक्षित बनाने में लगा दिया। उनका बलिदान इस बात का प्रमाण है कि एक साधु भी समाज की दिशा बदल सकता है।
 
लेख
शोमेन चंद्र
तिल्दा, छत्तीसगढ़