वामपंथी पोर्टल 'द वायर' का नक्सल प्रोपेगेंडा

क्या "द वायर" को यह नहीं बताना चाहिए कि भारत में लोकतंत्र से चुनी हुई पार्टी शासन करती है, माओतंत्र से नहीं ? बस्तर का निर्णय बस्तर की जनता के चुने हुए नेता करेंगे या विदेशी विचारधारा लेकर आये हुए माओवादी करेंगे ?

The Narrative World    10-Apr-2024   
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वर्ष
2024 की शुरुआत होते ही सुरक्षाबलों ने माओवादी आतंक से ग्रसित विभिन्न क्षेत्रों में अपने अभियानों को तेज करते हुए आक्रामक ऑपरेशन चलाए हैं, जिसमें उन्हें बड़ी सफलता हाथ लगी है।


हाल ही में बीजापुर में ही सुरक्षाबलों ने एक ही मुठभेड़ में 13 माओवादियों को मार गिराया था, जिसमें सुरक्षाकर्मियों को कोई नुकसान नहीं हुआ, यह छत्तीसगढ़ में माओवादियों के विरुद्ध किसी भी मुठभेड़ में सुरक्षाबलों की सबसे बड़ी सफलता थी।


इसके बाद बीते 6 अप्रैल को हुए एक और मुठभेड़ में माओवादी आतंकी संगठन के 3 आतंकियों को सुरक्षाबलों ने ढेर किया था।


ऐसी आक्रामक कार्रवाइयां बीते तीन महीने से लगातार चल रहीं हैं, जिसके चलते अभी तक सामने आए आंकड़ों के अनुसार इस दौरान करीब 50 माओवादी आतंकी मारे जा चुके हैं। दिलचस्प बात यह है कि माओवादियों के मारे जाने के ये आंकड़ें खुद नक्सलियों ने ही जारी किए हैं। 


लेकिन इन सब के बाद भी जो कम्युनिस्ट प्रोपेगेंडा समूह है, वो अभी भी इन माओवादियों को 'नक्सली' मानने से हिचक रहा है। प्रोपेगेंडा मीडिया पोर्टल 'द वायर' ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि सुरक्षाबलों के साथ हुए मुठभेड़ में 'कथित' नक्सली मारे गए हैं।


इस्लामिक एवं कम्युनिस्ट प्रोपेगेंडा परोसने वाले मीडिया पोर्टल 'द वायर' ने 'बस्तर के पुलिस अभियान में आई सहसा तेज़ी : इस वर्ष पचास कथित नक्सली मुठभेड़ में मारे गए' शीर्षक के साथ अपनी रिपोर्ट में मारे गए माओवादियों को 'कथित नक्सली' कहा है।


इस वामपंथी मीडिया पोर्टल के अनुसार जिसे माओवादी खुद अपने संगठन का नक्सली बता रहे हैं, वो 'कथित' तौर पर ही नक्सली है। जब हमने इस रिपोर्ट को बारीकी से समझने का प्रयास किया, तब इस प्रोपेगेंडा पोर्टल के द्वारा बनाए जा रहे नैरेटिव अच्छी तरह से स्पष्ट होते गए।


रिपोर्ट में लिखा गया है कि 'चुनाव के दौरान सुरक्षा बल ऑपरेशन के बजाय शांतिपूर्ण मतदान कराने पर ज़ोर देते हैं, लेकिन इस बार भिन्न रणनीति के साथ जवान नक्सलियों के खिलाफ अभियान तेज कर रहे हैं और नक्सलियों के ठिकानों में अपने कैंप स्थापित कर रहे हैं।'

क्या 'द वायर' यह बताएगा कि जवान तो शांतिपूर्ण तरीके से चुनाव कराना चाहते हैं, लेकिन माओवादी शांतिपूर्ण तरीके से चुनाव होने देते हैं क्या ? पिछले आम चुनाव से पहले माओवादियों ने बस्तर संभाग से एकमात्र भाजपा विधायक भीमा मंडावी की हत्या कर दी थी।


इसके अलावा बस्तर क्षेत्र में कोई भी चुनाव हो, वो माओवादी आतंक के बिना पूरा नहीं होता, तो क्या ऐसे में सुरक्षाबलों की यह जिम्मेदारी नहीं कि वो बस्तर के भीतर माओवादी आतंक को खत्म कर चुनाव कराएं ? यदि देखा जाए, तो सही मायनों में अब सुरक्षा बल के जवान शांतिपूर्ण तरीके से चुनाव कराने की ओर बढ़ रहे हैं।


वहीं 'द वायर' की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 'नक्सली हमलों के बाद जवान अघोषित रूप से ऑपरेशन बंद कर दिया करते थे। लेकिन इस बार नक्सली हमले के तुरंत बाद सुकमा के पूवर्ती जैसे इलाकों में नए कैंप खोल दिए गए।'


दरअसल यह वो संदेश है जो द वायर जैसे प्रोपेगेंडा पोर्टल देना चाहते हैं कि 'नक्सली तो हमला करने के बाद शांत हैं, लेकिन सुरक्षा बल के जवान ही ऑपरेशन चला रहे हैं, जिसके चलते बस्तर में हिंसा हो रही है।'


वहीं रिपोर्ट में जिस पूवर्ती गांव का उल्लेख किया गया है, यह वही गांव है जहां से हिड़मा जैसे खूंखार माओवादी आतंकी निकले हैं। यह माओवादियों का सबसे बढ़ा किला था, जिसे अब फोर्स ने ढहा दिया है।


इस पूवर्ती में कैंप लगने के बाद यहां के नागरिकों ने पहली बार डॉक्टर को भी देखा है। अब कल्पना कीजिए कि ये 'द वायर' जैसी प्रोपेगेंडा मशीनरी पूवर्ती जैसे हजारों गांवों को पिछड़ा रखने के लिए नक्सलियों के पक्ष में बौद्धिक ढाल देने का काम कर रहीं हैं।


अपने प्रोपेगेंडा भरे रिपोर्ट में 'द वायर' ने लिखा है कि 'नक्सलियों ने सशर्त बातचीत के लिए हामी भी भरी थी।' लेकिन यह कब हुआ और किन-किन शर्तों को नक्सलियों ने माना यह कहीं नहीं बताया गया।


एक तरफ द वायर कहता है कि नक्सलियों में सशर्त हामी भरी, लेकिन दूसरी ओर उसे माओवादी आतंकियों द्वारा बस्तर में लगातार किए जा रहे हमले नज़र नहीं आए। रिपोर्ट में 'नागरिकों की हत्याएं हुईं' तो कहा गया, लेकिन किसके द्वारा यह बताना जरूरी नहीं समझा गया।


आगे इसने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि 'सरकार ने भी माओवादियों की शर्तों में से एक कैंप न खोलने के उलट कैंप अधिक खोल दिए।' क्या 'द वायर' यह बता सकता है कि बस्तर के अंदरूनी गांवों में कैंप खुलने के बाद ही शिक्षा, चिकित्सा, सड़क, पानी, बिजली और बुनियादी सुविधाएं पहुँच रही है, जिन्हें नक्सलियों ने कभी पहुंचने नहीं दिया ?


क्या 'द वायर' को यह नहीं बताना चाहिए कि भारत में लोकतंत्र से चुनी हुई पार्टी शासन करती है, माओतंत्र से नहीं ? बस्तर का निर्णय बस्तर की जनता के चुने हुए नेता करेंगे या विदेशी विचारधारा लेकर आये हुए माओवादी करेंगे ?


जिस तरह से 'द वायर' ने मारे हुए माओवादियों को नक्सली कहने से परहेज किया है, वह बताता है कि कैसे ये मीडिया समूह पूर्व में भी मारे गए नक्सलियों को 'ग्रामीण' बताने का प्रयास करता रहा है।


“वर्तमान में जब माओवादियों ने खुद प्रेस नोट जारी कर कहा है कि 'पिछले तीन महीने में उनके 50 साथी मारे गए हैं', बावजूद इसके 'द वायर' जैसे प्रोपेगेंडा मीडिया पोर्टल झूठ बोल रहे हैं, तब कल्पना कीजिए कि जब माओवादियों द्वारा सरकारों पर फर्जी मुठभेड़ के झूठे आरोप लगाए जाते हैं, तब ये मीडिया पोर्टल्स किस तरह का नैरेटिव सेट करते होंगे।”

 


दरअसल 'द वायर' जैसे प्रोपेगेंडा मीडिया पोर्टल अपनी ऐसी रिपोर्ट्स के माध्यम से यह विमर्श स्थापित करने का प्रयास करते हैं कि बस्तर जैसे क्षेत्रों में सुरक्षा बल के जवान नक्सलियों के नाम पर 'ग्रामीणों' को मार रहे हैं। यही कारण है कि माओवादियों द्वारा स्वीकार किए जाने के बाद भी वो मारे गए नक्सलियों को 'कथित नक्सली' ही कहते हैं।


इसके अलावा सुरक्षाबल के कैंप स्थापित करना हो या अंदरूनी जंगल के ग्रामीणों के लिए सुविधाएं प्रदान करना, इन सभी गतिविधियों को 'द वायर' जैसे प्रोपेगेंडा समूहों के द्वारा अनुचित माना जाता है, क्योंकि इनका मानना है कि यदि एक बार बस्तर के स्थानीय जनजाति विकास की राह को देख लेगा या माओवादी आतंकी की सच्चाई को समझ लेगा, तो इनके कम्युनिस्ट आतंक के प्रोपेगेंडा की दुकान बंद हो जाएगी।

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